रंगमंच की सुप्रसिद्ध अदाकारा और निर्देशिका , श्रीमती नादिरा बब्बर 'अज्ञात रावण' के विषय में कहती हैं ....
यह नाटक हमारी भारतीय संस्कृति के जाने माने खलनायक रावण को एक नए दृष्टिकोणसे देखने का प्रयास है . नाटक का चरित्र जिस मानवीय ढंग से नाटककार ने दर्शाया है वह अत्यंत मार्मिक और मन को छू लेता है . बचपन से जिस दसमुखी रावण को, लखनऊ के रामलीला के मेलों में दशहरे के दिन भस्म कर देने वाले तीर, हवा में उड़ते और गिरते उसके सर, आज भी मन पर अंकित हैं और अचानक सामने आ गयी नाटक 'अज्ञात रावण ' की लेखनी जिसने मन में बसे उस रावण के चित्र को छिन्न -बिन्न कर दिया और मन इस नए रावण के लिए रो उठा . यह शब्द कुमारजी का ही जादू है की बचपन से मन में बसे खलनायक को ऐसा दर्शाया की कुछ ही क्षणों में वह खलनायक एक आदरणीय, सराहनीय नायक बनकर हमारे सामने खड़ा हो गया.
और भाषा का तो कहना ही क्या ....साफ़ सीधी और सच्ची भाषा, जो साहित्यिक भी है, सुन्दर भी है और सादगी से समझ में भी आती है, पढ़ते हुए ऐसी रवानी महसूस होती है जैसे बहता हुआ पानी.
उदहारण के लिए जब युद्ध के मैदान में राम और रावण का सामना होता है -
रावण : मैंने तो केवल
हरण किया था
तुम्हारी नारी का,
पर क्या किया था
तुम दोनों भाइयों ने
मेरी बहन के साथ ?
क्या बिगाड़ा था
सूर्पनखा ने तुम्हारा
उसने तो केवल
जताया था अपना प्रेम
दिया था तुम्हें सम्मान
पर बदले में तुमने
किया था उपहास
काटे थे उसके नाक कान .
एक नारी पर हाथ उठाना
नोच लेना उसका सौंदर्य
बना देना उसे कुरूप
यह कहाँ की वीरता है ?
संसार जानता है
पहल तुमने की थी
इस महायुद्ध की
सीता हरण तो प्रतिवाद था
एक बहन के अपमान का .
या वह मार्मिक दृश्य जब रावण स्वयं लंका से विभीषण को विदा करता है और कहता है की तुम राम की शरण में जाओ .....
रावण : आँसुओं को छिपाना
सीख लो विभीषण .
अब तो अनेक बार पीना
पड़ेगा तुम्हें
इन आंसुओं को.
आज तो अंतिम बार
लगा लूं तुम्हें
अपने हृदयसे .
इसके बाद जब तुम
लगाओगे मुझे गले ,
वह मैं नहीं हूँगा
मेरा शव होगा.
और उस दिन पूरा होगा
मेरा मनोरथ,
विनाश लंका का ,
रावण की लंका का ,
रावण की इच्छासे,
रावण के हाथों.
जय महाकाल .
शब्द कुमारजी के इस नाटक से कई वर्षों बाद एक अच्छा नाटक पढने की संतुष्टि मिली . धन्यवाद शब्द कुमारजी. आज रंगमंच की दुनिया में अच्छे नाटकों का बड़ा अभाव है. मेरा विश्वास है की 'अज्ञात रावण' इस अभाव को काफी हद तक पूरा करेगा . मैं रंगमंच की दुनिया और शब्द कुमार को इस नाटक के छपने की बधाई देती ....
शुभकामनाओं सहित ,
नादिरा ज़हीर बब्बर
इस नाटक में ऐसे कई प्रसंग उन गहन अंतर्सत्यों को उद्घटित करते हैं जो रावण के प्रति अब तक की हमारी मान्यताओं और धारणाओं पर प्रश्न चिन्ह लगा, सुधि दर्शकों एवं पाठकों को एक पुनर्विश्लेषण के लिए बाध्य कर देते हैं .
(क्रमश: )
आपकी कलम से ... इस उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए आभार
ReplyDeleteसच है पुनर्विश्लेषण के लिए बाध्य करती है यह पोस्ट..बहुत सार्थक और सशक्त पोस्ट के लिए आभार सरस जी..
ReplyDeleteक्रम से सारी बातें सुनीं ... एक अविस्मरनीय बातचीत
ReplyDeleteमन बदल सा रहा है पढ़ कर....
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट सरस जी
आभार
अनु
कुछ हद तक John Milton के Paradise Lost के मुख्य चरित्र Satan की तरह, जो नायक बन कर उभरता है . रावण अत्यंत बुद्धिशाली और तर्क शास्त्रों में पारंगत था. महान तपस्वी तो था ही . हम एक पहलू देखते हैं सिक्के का ... आप की प्रस्तुति ने दूसरे पहलू पर प्रकाश डाला. बहुत सुन्दर .
ReplyDeleteसादर .
अक्सर हम लोग सहूलियतों के समीकरणों को ही पूरा सच मानकर चलते हैं...लेकिन कुछ कृतियाँ जब वास्तविकता पर रौशनी डालती हैं .....तो कई ऐसे पहलू उजागर होते हाँ ....जो पुनर्विश्लेषण के लिए बाध्य करते हैं......पोस्ट पर आने के लिए बहुत बहुत आभार मीताजी
Deleteबहत सुन्दर लिखा है , भाषा वाकई प्रवाहमयी है ।
ReplyDeleteबेहतरीन संवाद की एक झलक दी है आपने ... मुझे लगता है पूरा नाटक ही इस अचंभित करने बाले संवादों से भरा होगा ... रोचक झलक ...
ReplyDeleteहमें विश्वास है ...आपको निराशा नहीं होगी ..ह्रदय से आभार आपका !
Deleteबहुत सुंदर प्रवाहमयी प्रस्तुति,,,,
ReplyDeleteRECENT POST...: राजनीति,तेरे रूप अनेक,...
अच्छी श्रृंखला
ReplyDeleteबहुत ही खूबसूरत रचना आभार
ReplyDeleteअच्छा लगा रावण को एक अन्य नज़रिए से देखना
ReplyDeleteपहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ ..अच्छा लगा कुछ अलग सा
ReplyDeleteबहुत अच्छी शृंखला ... अज्ञात रावण पढ़ने की उत्कंठा हो रही है ॥
ReplyDeleteसंगीताजी , मेरी भी यही कोशिश है की शीघ्रातिशीघ्र इस किताब को फ्लिप्कार्ट के ज़रिये उपलब्ध करवा सकूं....आपकी सराहना संबल बनती है
Deleteएक यादगार पोस्ट के लिये,आभार.
ReplyDeleteऔर उस दिन पूरा होगा
ReplyDeleteमेरा मनोरथ,
विनाश लंका का ,
रावण की लंका का ,
रावण की इच्छासे,
रावण के हाथों.
जय महाकाल .
दिल को एक सुकून मिला .जैसा मैंने विचार किया था आपने उससे भी ज्यादा गरिमामय ढ़ंग से रावण के चरित्र को प्रस्तुत किया .इन पोस्ट के माध्यम से
कोतिश्ह बधाई ,
आपको पापाकी यह कृति 'अज्ञात रावण ' पसंद आ रही है ...जानकार अत्यंत हर्ष हुआ ...! बहुत बहुत आभार !!
Deleteइस पोस्ट को शामिल करने के लिए बहुत बहुत आभार संगीताजी !
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा पोस्ट..
ReplyDeleteरावण को एक नए नजरिये से देखने का अवसर मिल रहा है...
रावण की भूमिका ऐसी क्यों गढी गई कि उसे अपराधी बना दिया गया, जबकि राम-लक्ष्मण की सारी गलतियों को जायज़ ठहराने के लिए पक्ष में बहुत सारे तर्क दिए गए. बहुत अच्छा लगा आपकी पोस्ट को पढकर. रावण के पक्ष में एक निष्पक्ष सोच. धन्यवाद.
ReplyDeleteखलनायक हो हीरो बनाने के कई कुतर्क हो सकते हैं.... रावण अत्याचार का पर्याय था.
ReplyDeleteयह तो केवल प्रयास है ...ग्रंथों में दिए साक्ष्यों की बिना पर ...एक और पहलू को निक्ष्पक्ष रूपसे उदित करने का....अपना मत थोपने की कोई मंशा नहीं है ......आप जैसा सोचते हैं...बिलकुल ठीक सोचते हैं.....
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteचलो रावण को अलग नजरिए से तो देखा , मैंने पढ़ा , लगा कहीं न कहीं है हमारे भीतर भी एक रावण , लेकिन खूब दुविधा में डूबा हुआ , आता नहीं उसको फासला नापना अपने कदमों और हाथों के बीच का , !!
ReplyDeletekalpna ka ye aasman bhi accha hai ....
ReplyDeletesachi me, Ravan ko ek dum naye roop me dekha... behtareen!
ReplyDeleteप्रबल लेखनी अंधकार को भी उज्जवलता देती है ...वैसे तो रावण विद्वान थे ही ..ये सम्वाद दिमाग को सोचने के लिये बाध्य कर रहे हैं ...!!
ReplyDeleteसराहनीय सार्थक प्रयास ....!!
शुभकामनायें.
मैं बचपन से सुनता आ रहा हूँ कि रावण एक बहुत बड़ा विद्वान था .....
ReplyDeleteऔर इस 'अज्ञात रावण' में जिस तरह से संवाद लिखा गया है वो सही में सोचने को विवश करती है ...
सार्थक पोस्ट !!
साभार !!
वास्तव में आत्म मंथन की बात है एक पारंपरिक सोच की झील में विचारों की लहरें......
ReplyDeleteसार्थक आलेख ..
आभार एवं हार्दिक शुभ कामनाएं !!!
अभी भी बाली ,सुमात्रा में रावण की पूजा होती है..
ReplyDelete