तुम्हारा यह कहना की तुम्हे कोई फ़र्क नहीं पड़ता
इस सच को और पुष्ट कर देता है कि
......तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
दिन की पहली चाय का पहला घूँट तुम ले लो -
मेरे इस इंतज़ार से
..... तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
तुमसे अकारण ही हुई बहस से -
माथे पर उभरीं उन सिल्वटोंसे
.....तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
मंदिर की सीढियां चढ़ते हुए , दाहिना पैर
साथ में चौखट पर रखना है इस बात से
....... तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
इस तरह ..रोज़मर्रा के जीवन में
घटने वाली हर छोटी बड़ी बातसे तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
फिर जीवन के अहम् निर्णयों में -
कैसे मान लूं ...की तुम्हे फ़र्क नहीं पड़ता ......
यह 'फ़र्क पड़ना' ही तो वह गारा मिटटी है जो
रिश्तों की हर संध को भर
उसे मज़बूत बनाता है .....
वह बेल है जो उस रिश्ते पर लिपटकर
उसे खूबसूरत बनाती है
छोटी छोटी खुशियाँ उसपर खिलकर
उस रिश्ते को सम्पूर्ण बनाती हैं
और 'फ़र्क पड़ना'तो वह नींव है
जो जितनी गहरी ,
उतने ही रिश्ते मज़बूती और ऊँचाइयां पाते हैं ...!!!!
सच है कि जो कहते हैं कि फर्क नहीं पड़ता ...उनको फर्क पड़ता है और फर्क पड़ना रिश्ते की नींव है ऐसा एहसास आपको पढ़ कर हुआ ।
ReplyDelete'फ़र्क पड़ना'तो वह नींव है
ReplyDeleteजो जितनी गहरी ,
उतने ही रिश्ते मज़बूती और ऊँचाइयां पाते हैं ...!!!!
बहुत ही सहजता से हर भाव को जबरदस्त उकेरा है आपने इस अभिव्यक्ति में
सादर
वह बेल है जो उस रिश्ते पर लिपटकर
ReplyDeleteउसे खूबसूरत बनाती है
छोटी छोटी खुशियाँ उसपर खिलकर
उस रिश्ते को सम्पूर्ण बनाती हैं
और 'फ़र्क पड़ना'तो वह नींव है
जो जितनी गहरी ,
उतने ही रिश्ते मज़बूती और ऊँचाइयां पाते हैं
किसी के होने के एहसास से ही तो फर्क पड़ता है .
तेरे एहसास से मैं जिंदा हूँ .
तेरे एहसास से मर जाऊंगा ..
तू नहीं तेरी जुस्तजू नहीं , तो बाकी रखा क्या है..
आपने सच कहा ..
"फर्क नहीं पड़ता" यह कहना ही जतलाता है कि फर्क तो पड़ता है.:).
ReplyDeleteकोमल भावो की अभिवयक्ति......
ReplyDeleteजबरदस्त भावों की उम्दा अभिव्यक्ति,,, बधाई।
ReplyDeleterecent post हमको रखवालो ने लूटा
बहुत फ़र्क़ पड़ता है... फ़र्क़ पड़ने से !
ReplyDeleteरिश्तों की परिभाषाएँ ही बदल जाती हैं... 'सिर्फ़ एक फ़र्क़ पड़ने से' !
बहुत सुंदर रचना भाभी !
~सादर!!!
सुन्दर भावो की उम्दा अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteमेरी मां हमेशा कहती है कि जाओ जो करो, मुझे फर्क नहीं पड़ता, इस कविता में उनके कहे हुए का मर्म है।
ReplyDeleteकोमल अहसास लिए
ReplyDeleteअति सुन्दर रचना.....
:-)
वक़्त ठहर गया और पढने लगा ... क्योंकि फर्क पड़ता है ऐसा कुछ पढकर
ReplyDeleteफर्क तो पड़ता है भई... :-)
ReplyDeleteरिश्तों की उलझनों को समझने का बेहतरीन प्रयास इस सुंदर कविता के रूप में पसंद आया.
ReplyDeleteरिश्तों में छोटी से छोटी बात का भी फर्क पड़ता है ...
ReplyDeleteरिश्तों के फर्क को महसूस करती रचना ...
aapsi rishton ki antrangta ko kya khoob ukera hai..
ReplyDeletevery nice....
ReplyDeleteमंदिर की सीढियां चढ़ते हुए , दाहिना पैर
साथ में चौखट पर रखना है इस बात से
....... तुम्हे फ़र्क पड़ता है !
सही में फर्क पड़ता है !!!!
ReplyDeleteअपना आशीष दीजिये मेरी नयी पोस्ट
मिली नई राह !!
http://udaari.blogspot.in
सार्थक प्रस्तुति। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।
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