Friday, August 31, 2012

....आज कुछ बातें कर लें ( ९ )


                           


ऐसे कई प्रसंग हैं इस नाटक में .....जो चिर परिचित परिस्तिथियों पर एक नया प्रकाश डालते हैं ......और एक सर्वथा भिन्न सोच के लिए  बाध्य करते हैं ......

ऐसा ही एक प्रसंग है जब रावण अंतिम बार विभीषण के प्रस्थान से पहले उससे मिलता है और उसका दाहिना हाथ अपने दोनों हाथों में लेकर उसकी उँगलियों के पोरों को ध्यान से देखता है और फिर आदर से आँखों और मस्तक से लगाकर कहता है  ....

रावण        : तुम्हारी उँगलियों के पोरों में
                 रख दिया है मैंने
                 अंश अपने ह्रदय का
                 अपने मस्तक का  I
 
                 अब जब भी करोगे तुम स्पर्श
                 श्री राम के पद कमलों को
                 उस स्पर्श में मेरा ह्रदय ,
                 मेरा मस्तक भी होगा I

                 और कोई विकल्प नहीं है
                 उनके चरणस्पर्श का
                 इस जीवन में
                 युद्ध भूमि में तो मुझे
                 करना है पालन
                 युद्ध धर्मं का
                 वहां लड़ना है वीरों की तरह
                 मरना है वीरों की तरह

विभीषण के आंसू पोंछते हुए रावण पुन: कहता है

रावण     : आंसूंओं को छिपाना
               सीख लो विभीषण
               अब तो अनेक बार
               पीना पड़ेगा तुम्हे
               इन आँसूंओं को

               चुपचाप देखनी होगी मृत्यु
               अपने एक-एक भाई
               एक -एक सम्बन्धी की
               बचोगे केवल तुम ही
               मेरे विराट वंश में
               आँसू बहाने के लिए
               जाओ विश्राम करो
               कल बहुत काम
               करना है तुम्हे

          विभीषण रावण के पैर छूने लगता है तो रावण उसे गले लगा लेता है

रावण     : आज तो अंतिम बार
              लगा लूं तुम्हे
              अपने हृदयसे
              इसके बाद जब तुम
              लगाओगे गले;
              वह मैं नहीं मेरा शव होगा
              और उस दिन पूरा होगा
              मेरा मनोरथ;
              विनाश लंका का
              रावण की इच्छा से
              रावण के हाथों
              जय महाकाल


अनेक मान्यताएं हैं , रावण के विषय में. कुछ  कहते हैं रावण बुरा था , राक्षस था, प्रतीक था अंधकार का , पाप का . कुछ ऐसे भी हैं जो मानते हैं उसे बहुत बड़ा ज्ञानी, एक योगी , तपस्वी, परम भक्त शिव का. कुछ विद्वान् कहते हैं  वह जानता था सब कुछ पता था उसे राम नर नहीं नारायण हैं और वह शत्रु नहीं भक्त था राम का ...लगता है न विचित्र ....रावण और राम भक्त ....ऐसा कैसे हो सकता है ....अब जो भी था जैसा भी था ...था भी या नहीं था ....निर्णय आपको लेना है ....मैंने तो बस प्रस्तुत किया है  एक नया रूप ...'अज्ञात रावण ' का ....


समाप्त



 

22 comments:

  1. बहुत सुन्दर रूप प्रस्तुत किया है आपने हो सकता है किसी युग मे या किसी कल्प मे ऐसा भी हुआ हो ।

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    1. वंदनाजी यह नाटक १० वर्षों के शोधकार्य के बाद लिखा गया है ..इस में दिए तथ्य साक्ष्य के साथ प्रस्तुत किये गए हैं इस किताब में ...उसके बाद तो लेखक ने अपनी कल्पना के रंग भरे हैं ...इसलिए किसी हद तक तो सच्चाई हैं इनमें

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  2. आपकी इस श्रृंखला में कई रूप कई भावों के साथ विचारणीय बातें भी सामने आईं इस प्रभावी एवं सशक्‍त प्रस्‍तुति के लिये आपका आभार

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    1. सदाजी पूरी श्रंखला में साथ रहने के लिए और समय समय पर अपनी अमूल्य प्रतिक्रिया देने के लिए बहुत बहुत आभार ..!!!!

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  3. आपकी पोस्ट तो रावण को चाहने पर मजबूर कर रही है.....
    बहुत सुन्दर सरस जी....

    सस्नेह
    अनु

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    1. सच में अज्ञात रावण को पढने के बाद मेरा नजरिया भी रावण के प्रति बहुत बदल गया ...आभार अनुजी

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  4. इस बात के दरम्यान मैं रोमांचित होती रही हूँ ... यह पहलू एक मार्ग खोलता है

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  5. रश्मिजी आप यह किताब ज़रूर पढियेगा ....आपको बहुत अच्छी लगेगी, मुझे पूरा विश्वास है ...प्रोत्साहन के लिए दिल से आभार

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  6. रावण के इस अज्ञात रूप ने 'रावण' को बिलकुल एक नई दृष्टि से देखने को मजबूर किया है.
    बहुत ही अच्छी प्रस्तुति

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    1. रश्मिजी किताब इससे भी अधिक रोचक है .....बहुत से प्रसंग हैं इस में ...जो यहाँ उद्घटित नहीं किये हैं .....कुछ तो किताब के पाठकों के लिए भी छोड़ देना चाहिए न ...आभार इस श्रंखला में रूचि लेने का

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  7. रावण, जो सदैव ही जान मानसिकता में एक खलनायक की भूमिका में रहा, उसके व्यक्तित्व की व्याख्या एक नए दृष्टिकोण के सापेक्ष में पढ़ना बहुत रुचिकर व विचारणीय रहा ..... इस पुस्तक को पढ़ने कि जिज्ञासा तीव्र होती जा रही है.

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    1. मुझे ख़ुशी है इस बात से ..कि आप रावण के विषय में इस नए दृष्टिकोण से प्रभावित हुईं...किताब ज़रूर पढ़ियेगा ....बहुत ही रोचक और ज्ञान वर्धक है ....

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  8. बढ़िया अंदाज़ ....

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  9. श्रृंखला में कई विचारणीय बातें सामने आईं पढ़ना बहुत रुचिकर लगा, प्रभावी एवं सशक्‍त प्रस्‍तुति के लिये आपको बहुत२ बधाई,,,,,,

    RECENT POST,परिकल्पना सम्मान समारोह की झलकियाँ,

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  10. waah! bahut khub,bahut acha likhti hai aap ,mujhe garv hai ke aap ke blog ki pahli sadsya main bani thee, :) adhik aa nahin pati hun ,par jab bhi aati hun ,aap ke likhe shbd dimaag par ankit rhte hai kaee dino tak

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  11. रावण : आज तो अंतिम बार
    लगा लूं तुम्हे
    अपने हृदयसे
    इसके बाद जब तुम
    लगाओगे गले;
    वह मैं नहीं मेरा शव होगा
    और उस दिन पूरा होगा
    मेरा मनोरथ;
    विनाश लंका का
    रावण की इच्छा से
    रावण के हाथों
    जय महाकाल

    अंतिम सत्य

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  12. बहुत ही सुन्दर रही श्रंखला.....शुभकामनायें।

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  13. Saras,bhaut sunder hai ye Ravan Prasang,saach hai ya juht,par itna hai bhagawan ke chahai bina pata bhi nahi hilta,me manti hu Ravan bhaut gyani tha,Ram chate the uska ithas yehi hona tha.

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  14. वाह ...उम्दा ......सरल शब्दों का भंडार हैं यहाँ ...एक नए ज्ञान के साथ ....आभार आपका ये सब लिखने और यहाँ साँझा करने के लिए

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  15. सब कुछ पढ़ने के बाद ...बस ये ही कहूँगी .....एक नई सोच :)))

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  16. अज्ञात विषय हमेशा से आकर्षित करता है और आपका प्रयास सराहनीय है..

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  17. अज्ञात रावण की कड़ियाँ पढ़ीं, बहुत अच्छा लगा। रावण के प्रति दृष्टिकोण बदला। आपके पिता ने सचमुच इस नाटक के लिए अत्याधिक परिश्रम किया है और हमारे महाकवियों की परंपरा को आगे बढ़ाया है जिन्होंने राम कथा को इतना समृद्ध किया है। इसके संवाद बहुत अच्छे हैं। यह भी जानकर खुशी हुई कि आपके पिता ने बालिका वधू जैसी फिल्म की कहानी भी लिखी है। यह मेरी प्रिय फिल्म है। पोस्ट रावण के चरित्र के प्रति ही नहीं, शूर्पणखा के संबंध में भी हमारा ध्यान खींचती है। अपनी इच्छा जताने की सजा उसे नाक-कान गंवाकर मिली। अपनी आस्था में श्रद्धावनत समाज कभी दूसरे पक्ष का सत्य नहीं देखता।
    आभार, सुंदर कड़ियों से परिचय कराने के लिए।

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