रावण : रावण को जानना
बहुत कठिन है विभीषण.
संभवत: आने वाले युग भी
नहीं समझ सकेंगे उसे .
क्योंकि वह करता कुछ और है
और दिखाता कुछ और .
कभी कभी तो मेरा ह्रदय भी
नहीं जान पाता
क्या है मेरी योजना ,
क्या सोचा है मेरे मस्तिष्क ने .
चाहे वह राम का वनवास हो
सीता का हरण हो
अथवा तुम्हारा अपमान;
यह सब कड़ियाँ हैं मेरी गुप्त योजना की .
....अब आगे ......
विभीषण : मैं कुछ समझा नहीं
रावण : तुम क्या समझते हो
मैंने जीवित छोड़ा था
रामदूत हनुमान को
तुम्हारे कहने पर
मैं अच्छी तरह जानता था
जो वानर लांघकर
यह विशाल सागर
आ सकता है लंका तक,
वह कोई साधारण वानर
हो ही नहीं सकता
उसकी पूँछ में
लगाने से अग्नि
वह अवश्य करेगा
कोई न कोई उपद्रव.
और हुआ भी ऐसा ही
जलाकर रख दी उसने
सोने की लंका
विभीषण : परन्तु लंका के जलने से
आपका सुखी होना
यह कैसे संभव है ?
रावण : केवल लंका ही नहीं जली,
उसकी लपटों में
जल गया है
सेना का आत्म विश्वास.
एक आतंक सा छा गया है
सबके ह्रदय में.
भयभीत हैं सारे सोचकर
यदि राम का एक वानर
अकेले ही भस्म कर सकता है
सारी लंका को
तो उसकी सेना
क्या नहीं कर सकती .
पराजित करने के लिए
किसी भी शत्रु को
आतंकित कर देना उसे
युद्ध के पूर्व समान है
आधी जीत के .
मानता हूँ मैं
राम वीर हैं ,
ढृढ़निश्चयी हैं
असंभव है खोजना
उन जैसा साहसी
जो बिना किसी सेना के
निकल पड़े युद्ध करने
रावण जैसे महाबली से ,
जिसके नाम से
काँपते हैं देवता.
वह चाहते तो
बुला सकते थे
अयोध्या की सारी सेना
पर नहीं किया
राम ने ऐसा.
यह पराकाष्ठा है
साहस की
ढृढ़ निश्चयकी
आत्मविश्वास की.
फिर भी विभीषण
यह वानरों, भालुओं की सेना
नहीं कर सकती सामना
लंका के वीरों का
रावण को पराजित करने के लिए
तुम्हें देना होगा
राम का साथ
दिखाना होगा उन्हें मार्ग
लंका विजयका .
बताना होगा उन्हें भेद
मेरी मृत्युका .
एक कलंक लिया था
कैकेयीने अपने माथे पर,
एक कलंक लेना होगा तुम्हे
बनकर घर का भेदी .
संभवत: तुम्हारा नाम भी
रह जायेगा अभिशाप बनकर
और कोई भी नहीं रखेगा
अपने पुत्र का नाम
विभीषण
विभीषण : आप जो आज्ञा देंगे
वही होगा भाई.
रावण : अब सुनो ध्यान से
आगे की योजना
तुम्हे जाकर मिलना होगा
रावण के शत्रु से
और वहां तुम्हारा कार्य होगा
बताना हमारे भेद रामको ,
जिताना उन्हें इस युद्ध में
वध करके अपने भाई का .
विभीषण : जिताना राम को
हराना आपको !
कुछ समझ में नहीं रहा
क्यों चाहते हैं
अपनी पराजय
क्यों चाहते हैं
विनाश लंका का
इस महाशक्ति का
जिसका सामना नहीं कर सकता कोई
चाहे वह साक्षात् इन्द्र ही क्यों न हों
( मंच पर अंधकार. रावण की आवाज़ सुनाई दे रही है )
रावण की
आवाज़ : देख रहा हूँ मैं
उस महाविनाश के
पास आई छाया को
सुन रहा हूँ
चारों और हाहाकार .
( पूर्ण अंधकार में जनता का कोलाहल सुनाई दे रहा है )
पुरुषों की
आवाज़ : काटो...मारो...लूटो !
नारियों की
आवाज़ : बचाओ बचाओ दया करो .
एक वृद्ध
की पुकार : हे प्रभु रक्षा करो
अब नहीं सहा जाता
(कोलाहल बढ़ता जाता है ....एक नारी की चीख ...और फिर सन्नाटा ..जैसे उस चीत्कार से सब ख़त्म हो गया )
( पूर्ण प्रकाश . रावण विभीषण से कहता है )
रावण : इसीलिए निश्चय किया है मैंने
विनाश इस महाशक्ति का
रावण की लंका का
रावण की इच्छा से
रावण के हाथों .
इसी में कल्याण है
समस्त विश्व का
सारी मानवता का .
विभीषण : आप पूजनीय हैं भाई
आप जैसा व्यक्ति
फिर जन्म नहीं लेगा
इस धरती पर ;
जो करे अपना विनाश
दूसरों के हित के लिए
रावण : तुम्हे क्या पता
क्यों रचा है मैंने
यह सारा षड़यंत्र;
क्यों किया है सीता का हरण
क्यों लिया है राम से बैर .
और यदि जान गए
इसके रहस्य को
तो स्पष्ट देख सकोगे
छिपा इस महानता के पीछे
एक स्वार्थी पुरुष,
जो मुक्ति दिलाना चाहता है
स्वयं को ,
सारे कुटुंब को
इस राक्षस योनी से .
उसके लिए आवश्यक था
हरण सीता का
बैर श्री रामसे
जो अवतार हैं विष्णु के .
विभीषण : एक शंका और
उठ रही है मन में
जिसका निवारण करने की
कृपा करेंगे क्या ?
रावण : बोलो क्या शंका है
विभीषण : आपने अभी अभी कहा
राम साधारण व्यक्ति नहीं हैं
अवतार हैं विष्णु के .
विष्णु तो अंतर्यामी हैं
उन्हें तो सब ज्ञात है .
फिर मैं क्या बताऊंगा उन्हें
मार्ग लंका विजय का
भेद आपकी मृत्यु का ?
रावण : विभीषण मेरे भ्राता
हर व्यक्ति अपनी सीमाएं
स्वयं निर्धारित करता है
चाहे वह भगवान ही
क्यों न हो .
इस बार प्रभुने
अवतार लिया है
एक साधारण मानव का .
अपनी ही इच्छा से
भुला दिया है उन्होंने
अपने विष्णु रूप को
जो बाधक हो जाता
बनने में मर्यादा पुरुषोत्तम.
यदि वे जानते वे कौन हैं
तो क्यों करते विलाप
सीता हरण का .
उन्हें क्या आवश्यकता थी
किसीको जताने की
की बहुत प्रेम करते हैं
वह अपनी सीता से
और रह नहीं सकते
उसके बिना .
वे जो भी हैं
वही हैं वे .
बिना किसी आवरण
बिना किसी मुखौटे के..
एक आदर्श पुत्र
एक आदर्श भाई
एक आदर्श राजा .
राम हैं एक उत्तम पुरुष
जो रहते हैं सदा
अपनी मर्यादा में
और कोई चमत्कार नहीं करते ;
जो एक साधारण पति की भाँती
पत्नी की इच्छा पूरी करने
जाते है मायावी मृग के पीछे.
जो एक मित्र की सहायता के लिए
छिप कर वाण चलाते हैं
उसके भाई पर .
राम स्वयं नहीं जानते
वे अवतार हैं विष्णु के .
विभीषण: फिर आप कैसे जानते हैं ?
रावण : पहले मैं भी नहीं जानता था .
पर एक दिन
जब करने गया था
स्थापना शिवलिंग की
राम के निमंत्रण पर
और देखा था उन्हें
तभी से लुप्त हो गयी थी
मन की शान्ति ,
नेत्रों की निद्रा
और हो रही थी
अत्यधिक व्याकुलता
जो दूर की थी प्रभु शंकर ने
बताकर सारा रहस्य ,
स्मरण करके मुझे
श्राप पूर्व जन्म का
( क्रमश:)
रावण का असली स्वरुप बुधिजीवी का था बाकी सब तो नियति के द्वारा
ReplyDeleteप्रायोजित था हमारे शाश्त्र तो यही बताते है आपने बड़ी खूबसूरती से नाट्य रूपांतरण किया है ...बधाई कि पात्र हैं
ममताजी ...यह शब्द कुमार जी की नाट्य कृति, 'अज्ञात रावण' के कुछ अंश हैं ....जो आपके सम्मुख प्रस्तुत हैं ...ख़ुशी हुई जानकार की आपको पसंद आये ...आभार !
Deleteजो दूर की थी प्रभु शंकर ने
ReplyDeleteबताकर सारा रहस्य ,
स्मरण करके मुझे
श्राप पूर्व जन्म का,,,,
रावण विभीषण वार्ता से अच्छी जानकारी मिली,,,रावण बध की,,,आभार,,
RECENT POST...: जिन्दगी,,,,
आपका भी आभार धीरेन्द्र जी
Deleteत्रिलोक विजेता महाज्ञानी रावण का विभीषण से संवाद और सन्देश...
ReplyDeleteहर व्यक्ति अपनी सीमाएं
स्वयं निर्धारित करता है
चाहे वह भगवान ही
क्यों न हो .
बहुत अद्भुत लेखन, शुभकामनाएँ.
और भी बहुत कुछ हैं इन दोनों के वार्तालाप के अंतर्गत ...बहुत से ऐसे तथ्य जो हमें पता ही नहीं थे .....यह सारे तथ्य ' अज्ञात रावण' में सन्दर्भ सहित उल्लेखित हैं .....आभार जेन्नी जी
Deleteरावण पर सर्वथा नवीन दृष्टि !
ReplyDeleteशायद यह सन्देश भी था रावण का कि स्त्री पर बुरी दृष्टि रखने से सर्वनाश निश्चित है !
हमारे ग्रन्थ इतने समृद्ध हैं की उनकी अनेकों व्याख्याएं हुई हैं ..और होती रहती हैं ...सभी अनूठी ...पसंद करने के लिए आभार वाणी जी
Deleteमैं तो बस मुग्ध भाव से इसे पढ़ती जाती हूँ ... सरस जी , आपने एक ऐसा तथ्य बताया और इतने स्पष्ट रूप से और सहज सरलता से कि कोई द्वन्द नहीं रहा
ReplyDeleteरावण : केवल लंका ही नहीं जली,
उसकी लपटों में
जल गया है
सेना का आत्म विश्वास.
एक आतंक सा छा गया है
सबके ह्रदय में.
भयभीत हैं सारे सोचकर
यदि राम का एक वानर
अकेले ही भस्म कर सकता है
सारी लंका को
तो उसकी सेना
क्या नहीं कर सकती ... अदभुत ....
रश्मिजी इस किताब का हर प्रसंग बहुत ही रोचक है ...मैं तो चाहती हूँ यह कृति सब तक पहुँच सके ....ख़ुशी होती है जब कोई इसे पढ़कर कोई दाद देता है ...सच में पापा की मेहनत सफल हो जाती है ...
Deleteआपका यह प्रयास सराहनीय ... इस उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए आभार
ReplyDeleteसादर
रावण एक भाव है जिसे समझने के लिए आप ने एक नए दृष्टिकोण से उसे प्रस्तुत किया ..इस अद्भुत प्रायास के लिए सरस जी आप का आभार..
ReplyDeleteसुन्दर पोस्ट हर बार की तरह।
ReplyDeleteहर व्यक्ति अपनी सीमाएं
ReplyDeleteस्वयं निर्धारित करता है
चाहे वह भगवान ही
क्यों न हो .
रावण त्रिकालग्य ,ज्ञानी, सर्व ज्ञाता , शिव भक्त ,का अनदेखा अद्भुत स्वरुप के दर्शन कराने का आभार
मर्यादा पुरुषोत्तम राम को स्वयं नहीं पता था कि वो भगवान विष्णु के अवतार हैं !
ReplyDeleteइस वार्तालाप को पढ़ते हुए जैसे डूब जाता हूँ और सोचने लगता हूँ ...
अगली कड़ी का इंतजार रहेगा .
साभार !
सादर !
ख़ुशी हुई जानकर की आपको यह श्रंखला पसंद आयी ...आभार !
Deleteसंवाद के रूप में एक उत्कृष्ट और अर्थपूर्ण रचना ......
ReplyDeletewaah ...
ReplyDeleteधन्यवाद निशाजी
Deleteयह नाट्य -प्रस्तुति रोचक है -शत कोटि रामायण भंडार में एक और की वृद्धि!
ReplyDeleteविभीषण की फिर भी क्या लोक छवि बदल पायेगी?
सब कुछ तो पूर्व नियोजित ही रहा -रावण को राम का भान और रावण को राम का भान -मगर प्रभु लीलाएं तो ऐसे ही चलती रही हैं न !
हम लोग अपनी मान्यताओं से इस कद्र जकड़े हुए हैं ...की इस तरह की कोशिश सिर्फ कुछ समय के लिए ही अपना असर छोडती है .....बरसों पुराने इम्प्रेस्शन इतनी जल्दी तो नहीं बदल सकते ...फिर भी तस्वीर का एक और रुख दिखाने की छोटीसी कोशिश है .....
Deleteसुन्दर संवाद... भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeletewah gadyatmak natak... behtareen:)
ReplyDeleteआज सभी पिछली कड़ियाँ पढ़ डालीं ..... अज्ञात रावण को जान रही हूँ ...समझने का प्रयास कर रही हूँ .... अद्भुत लेखन ..... पिता श्री को नमन
ReplyDeleteबहुत ही भाव-प्रवण कविता। मेरे ब्लॉग " प्रेम सरोवर" के नवीनतम पोस्ट पर आपका स्वागत है।
ReplyDeletepd kar maza aa gya saras ji :)
ReplyDeletehttp://apparitionofmine.blogspot.in/
सिक्के के दुसरे पहलु से रूबरू होकर अच्छा लग रहा है...कुछ हैरानी भी है...
ReplyDeleteसंभवत: तुम्हारा नाम भी
रह जायेगा अभिशाप बनकर
और कोई भी नहीं रखेगा
अपने पुत्र का नाम
विभीषण...
बहुत बढ़िया...आत्मसात करती जा रही हूँ...
आभार सरस जी इस श्रुंखला का...
आज पढ़ा है सभी पोस्ट्स को.
सस्नेह
अनु
रावण को लेकर लिखी गई एक नई तरह की सोच ...जो अब पढ़ने के बाद उसकी दृष्टि से देखो तो सही भी लगती हैं ..
ReplyDeleteरोचक चल रहा है वार्तालाप
ReplyDeleteरोचक प्रसंग..
ReplyDelete