रोज़ की तरह ,आज भी
वह खतरों को टोहता हुआ , बढ़ गया
और फ़ेंक गया एक कंकर
अंत:स के कई अनबूझे प्रश्नों में .
कई प्रश्न.............जैसे .
क्या सोचता होगा वह !
शायद शीश को कुछ ऊपर उठाये -
पूछता होगा इश्वर से -
क्यों छीना मुझसे मेरा उजास
और ठेल दी ,
एक अंतहीन निशा मेरी ओर...!
क्या मैं तुम्हे प्रिय न था ...?
या फिर .....
क्या है उसका 'उजास'.....
कोयल की बोली .....?
लहरों का स्पर्श ......?
बारिश की फुहार.....?
या विगत स्मृतियाँ ..?
ऐसे में याद आ जाता है
वह सहपाठी ...
NSS के छात्रों से घिरा हुआ...
हम बारी बारीसे उसे नोट्स पढ़कर सुनाते-
और वह उन्हें ब्रेल में लिखता जाता -
'स्लेट' और 'स्टाईलस' पर
यंत्रवत , दायें से बाएँ चलती उँगलियाँ -
हमारा कहा जज़्ब करती जातीं
और बाएँ से दायें
उभरे हुए बिन्दुओं का स्पर्श कर
आत्मसात करती जातीं -
अद्भुत !!!!
ऐसे ही एक दिन ठिठोली में -
हमने , उसके मानस में अंकित,
अपनी छवियों को टटोला था !
और फिर एक एक कर उसने हमारे व्यक्तित्वों को उकेरा था -
स्तब्ध थे हम सब !!!!!
कैसे नहीं देख पाए थे हम -
जो उसके सहज मन ने पहचाना था ....!
क्या परस्पर द्वेष, व्यक्तिगत हितों ने
असलियत को नकारकर -
हमें आधा सच दिखाया था-
उस दिन इश्वर से खुद को दूर पाया था -
और उसे उनका अतिप्रिय ....!!!!!!!
अत्यंत गहन भाव .... आँख होते हुये हम वो नहीं देख पाते जो लोग दिल से देखते हैं ...
ReplyDeleteऐसे ही एक दिन ठिठोली में -
ReplyDeleteहमने , उसके मानस में अंकित,
अपनी छवियों को टटोला था !
और फिर एक एक कर उसने हमारे व्यक्तित्वों को उकेरा था -
स्तब्ध थे हम सब !!!!!
मन को अंतःकरण तक स्पर्श कराती लाइन ,खुबसूरत एहसास संग आत्मिक अभिव्यक्ति .....
कैसे करूँ आपकी कविता की तारीफ ....संवेदनशील ...ह्रदय को छू गए भाव ....!!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ...!!
शुभकामनायें ...!!
नेत्रहीन आई.ए.एस अमित कुमार की छवि उभर गयी जेहन में... सुन्दर व सच कहा है...
ReplyDeleteबेहद गहन और सार्थक अभिव्यक्ति जो हम नही देख पाते समझ पाते उसका खूबसूरत चित्रण किया है।
ReplyDeleteकैसे नहीं देख पाए थे हम -
ReplyDeleteजो उसके सहज मन ने पहचाना था ....!
क्या परस्पर द्वेष, व्यक्तिगत हितों ने
असलियत को नकारकर -
हमें आधा सच दिखाया था-
उस दिन इश्वर से खुद को दूर पाया था -
और उसे उनका अतिप्रिय ....!!!!!!!.... ऐसा होता है न ?
बहुत ही अद्भुद बिम्बों को उकेरती ..... एक अद्भुत कृति के सृजन के लिए बधाई !
ReplyDeleteऐसे ही एक दिन ठिठोली में -
ReplyDeleteहमने , उसके मानस में अंकित,
अपनी छवियों को टटोला था !
और फिर एक एक कर उसने हमारे व्यक्तित्वों को उकेरा था -
और हम जैसे हैं कई....जो देखते हैं मगर जान नहीं पाते......
सुंदर भाव सरस जी.
ऐसे ही एक दिन ठिठोली में -
ReplyDeleteहमने , उसके मानस में अंकित,
अपनी छवियों को टटोला था !
और फिर एक एक कर उसने हमारे व्यक्तित्वों को उकेरा था -
वाह ,,,, बहुत सुंदर भाव की रचना,,,अच्छी प्रस्तुति
RECENT POST काव्यान्जलि ...: किताबें,कुछ कहना चाहती है,....
अद्भुत...दिल को छूती मार्मिक रचना...बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteनीरज
..दिल को छूती हुई.अद्भुत प्रस्तुति ......सरस जी..बधाई
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील पंक्तियाँ है.....शानदार ।
ReplyDeleteकैसे नहीं देख पाए थे हम -
ReplyDeleteजो उसके सहज मन ने पहचाना था ....!
क्या परस्पर द्वेष, व्यक्तिगत हितों ने
असलियत को नकारकर -
हमें आधा सच दिखाया था-
मन को छूते शब्दों के भाव ... आभार उत्कृष्ट लेखन के लिए
गहन भावों की सहज अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteगहन और सूक्ष्म
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गहन भाव व्यक्त करती बेहतरीन रचना...
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी रचना...
ReplyDeleteअंत तक पहुँचते हुए जिस स्तब्धता को लिखती है कविता वही स्तब्धता पढ़ते हुए महसूस हुई!
बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति । मेरी कामना है कि आप अहर्निश सृजनरत रहें । मेरे नए पोस्ट अमीर खुसरो पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद
ReplyDeleteइंसान अपना सच कभी मानने कों तैयार नहीं होता ... ऐसे में जो भी अपने अंतस से मिलवाता है वो कुछ प्रिय ही लगता है ...
ReplyDeleteये कुछ ऐसे हकीकत हैं जिसे स्वीकारना ही होता है।
ReplyDeleteये मासूम दिल ...भगवान के नजदीकी होते हैं ...?
ReplyDeleteशुभकामनाएँ!
बहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना.सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteपोस्ट पर आप आमंत्रित हैं ।
दूसरा ब्रम्हाजी मंदिर आसोतरा में .....
bahut hi gahre jajbat hai is panktiyon men... sunder prastuti.
ReplyDeleteबहुत कमाल की रचना. कई बार जिन्दगी ऐसे प्रश्नों में उलझा देती है कि सब कुछ उलट पुलट हो जाता है, फिर आसमान में देखते हुए ईश्वर से संवाद... अतीत या वर्तमान... पता नहीं क्या... शुभकामनाएँ.
ReplyDeleteकमाल की कविता है!!नॉस्टैल्जिक!! :)
ReplyDeleteबहुत बेहतरीन व प्रभावपूर्ण रचना....
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
कल 30/05/2012 को आपके ब्लॉग की प्रथम पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.
ReplyDeleteआपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
'' एक समय जो गुज़र जाने को है '
bahut sundar bhavpurn gahan Prastuti Saras JI Jitni bhi tareef karen kam hai naman karti hun apki pratibha ko....Ma''saraswati ki vishesh kripa hai aap par meri shubh kamnayen sweekar karen!
ReplyDeleteमन की आँखों की दृष्टि वह सब देख लेती है जिसे बाहरी आँखें नही देख पातीं । और जो सत्य होता है । बहुत ही मार्मिक व गहन भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteअति सुन्दर भाव |
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावअभिव्यक्ति,बेहतरीन रचना,,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST .... काव्यान्जलि ...: अकेलापन,,,,,
bhawpoorn.......
ReplyDeleteसे ही एक दिन ठिठोली में -
ReplyDeleteहमने , उसके मानस में अंकित,
अपनी छवियों को टटोला था !
और फिर एक एक कर उसने हमारे व्यक्तित्वों को उकेरा था -
Umda..... Ati Sunder
वाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteअन्तः स्पर्श करते भाव ......इश्वर जब नेत्र ज्योति नहीं देता तब तब समझ का खजाना जरुर देता है
ReplyDelete..
ऐसे ही एक दिन ठिठोली में -
ReplyDeleteहमने , उसके मानस में अंकित,
अपनी छवियों को टटोला था.....
बहुत सुंदर .
bahut sundar bahv....
ReplyDeleteदिल को छू लेनेवाली भावभिव्यक्ति...
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