Thursday, June 10, 2021

दृष्टि, ईश्वर की सबसे अनमोल देन...!



कुछ दिन पहले एक फिल्म देखी थी। दृष्टिहीन बेटी, ब्रैल में कुछ पढ़ रही है। तभी माँ बेटी के कमरे में प्रवेश करती है, और उसे पढ़ता देख लौटने लगती है। बत्ती जली छोड़कर जा ही रही थी, कि तभी, रुककर बेटी को देख, एक नि:श्वास छोड़ बत्ती बुझा देती है। रौंगटे खड़े हो गए थे उस दृश्य में। बिना किसी संवाद के कितनी सूक्ष्मता से उस दृश्य का मर्म दर्शकों तक पहुँच गया था।

हमें अपने घर का अंदाज़ रहता है, क्या चीज़ कहाँ रखी है, बखूबी जानते हैं, पर बावजूद इसके घुप्प अंधेरे में टटोलकर चलते हैं। कितना आसान होता है, चीज़ें खोज लेना, रुपए गिन लेना, सड़क पार कर लेना, सही नंबर की बस, या ट्रेन पकड़कर गंतव्य तक पहुँचना। ईश्वर ने हमें दृष्टि दी हैं। इसलिए यह सब संभव है। ईश्वर न करे, कभी किसी दिन अचानक हम उठें और हमारी दृष्टि हमसे छिन जाए, तो क्या होगा...! कैसे जियेंगे हम...!

क्या कभी हम ईश्वर की दी हुई नेमतों के लिए उसे धन्यवाद कहते हैं। हमारे पास शिकायतों की एक लंबी फेहरिस्त सदा तैयार रहती है। हमें यह नहीं मिला, हम यह नहीं बन सके, हमने ईश्वर का क्या बिगड़ा, वह इतना निष्ठुर क्यों है, उसे हमसे क्या दुश्मनी है, इत्यादि इत्यादि।

क्या कभी किसी दिव्याङ्ग को देखकर मन में यह भाव आया?

 हे प्रभु कितने कष्ट में होगा यह व्यक्ति, इसके कष्ट को दूर करो, या कि, ईश्वर तुम बहुत दयालु हो, तुमने यह अनमोल शरीर दिया है, अपनी कृपा हमपर बनाए रखना। कभी आगे बढ़कर किसी नेत्रहीन को सहारा दे, सड़क पार करने में मदत कीजिये, या सामान खरीदते हुए कोई दुकानदार, बेजा फायदा न उठा ले, इसलिए बस उसके बगल में खड़े हो जायेँ…! करके  देखिये, कितना सुकून मिलता है...! यह सच है, सभी अपने अपने युद्धों में लिप्त हैं, चाहते हुए भी हम सहायता नही कर पाते। पर संवेदनशील तो हो सकते हैं। चलते फिरते इनकी छोटी मोटी सहायता तो कर ही सकते हैं।

किसी अंग का भंग होना बहुत कष्टदायक होता है, जिसमें दृष्टिहीन होना हमें सबसे अधिक कष्टदायक लगता है। कितनी घुटनभरी अंधेरी ज़िंदगी होती है इनकी। जीवन के हर सौंदर्य से वंचित ...!

दृष्टि ईश्वर की सबसे अनमोल देन है। जीते जी न सही हम मृत्युप्रान्त ही उनके लिए कुछ करने का प्रण कर लें। ईश्वर को धन्यवाद कहने का एक नायाब तरीका है। करके देखिये...!

 

सरस दरबारी    

 


Tuesday, June 1, 2021

'स्वर्ग का अंतिम उतार',





प्रसिद्ध कथाकार लक्ष्मी शर्मा जी का एक बेहतरीन उपन्यास, जो अंतिम पन्ने पर पहुँचकर ही छूटता है। 

एक गरीब किसान का बेटा छिगनजिसे  दो पैसे कमाने की खातिर अपना गाँव अपना परिवार छोड़ इंदौर में एक सेठ के घर वॉचमैन की तरह काम करता है। घर के लोग खुश हैं कि उसकी शहर में नौकरी लग गई है, पर छिगन का दिल ही जानता है, चिलचिलाती धूप में घंटो खड़े रहना कितना दुष्कर है। बँगले के फूल क्यारी देख स्मृतियों में रह रहकर घर पहुँच जाता है।L

सेठ की उतरन पहन गाँव में अपना रुतबा बनाये हुए है। कहानी वहाँ से शुरू होती है जब एक दिन उसके मालिक कहते हैं कि उसे अपने साथ चार धाम की यात्रा पर ले जा रहे हैं। छिगन की खुशी का ठिकाना नही रहता। यह वह सपना था जो उसकी दादी देखते देखते दुनिया से कूच कर गयीं। उसकी माता पिता की आँखों में बरसों से यह सपना पल रहा था।  

" छिगन बचपन से देख रहा है बई को बद्रीनाथ के नाम से पाई पाई जोड़ते। हर साल घर के खर्चों से कतर ब्योन्त करती बई कभी पीहर जाना स्थगित करती थी तो कभी घर पर नया छप्पर डलवाना। कई बार तो घर के बच्चे भी मन मारकर मेले बाजार से मुँह जुठाये बिना लौट आते थे, लेकिन किसान और मौसम का सदा का बैर। कभी ओले तो कभी पाला, कभी सूखा तो कभी बरसात, कुछ नही तो कभी तेला लग गया, कभी टिड्डी फिर गईं और ये सब हर बार गरीब की कूलड़ी में पल रहे बचत- शिशु का भोग लेकर ही संतुष्ट होते थे"

ऐसे में चार धाम की यात्रा पर जाने के विचार से छिगन बौरा गया था। 

कितने चाव से उसने मालिक के पूरे परिवार की तस्वीर कॉपी के कागज़ पर बनाई थी। साहब, मेमसाहब, पुरु बाबा, जिया बेबीऔर  थोड़ी दूरी पर अपनी और उनका कुत्ता गूगल जो एक जर्मन शेपर्ड था।

फिर ऐसा क्या हुआ जो उसने उस कागज़ पर बनी सारी तस्वीरें लाल पेन से कोंच डालीं।

धर्मपरायण और कर्तव्यनिष्ठ छिगन की दिल को छू लेने वाली कथा। जिसमें बड़ी ही subtly धर्म और अधर्म के बीच की पारदर्शी रेखा को कथाकार ने उद्घाटित किया है। 

यह उपन्यास कई अहम मुद्दों पर एक पैनी दृष्टि रखकर चलता है...

जैसा गाँवों में साधु संतों द्वारा संचालित कंठी जैसी कुरीतियाँ..!

घर की स्त्रियों के साथ होते कुकृत्य..!

जैसे पानी का महत्व..! 

जैसे गरीबी और भुखमरी किसी तेंदुए से कम नही जो निरीह लोगों को चीर फाड़कर अपना ग्रास बनाती हैं...!

जैसे एक इंसान की मूँछों की ऐंठ उसकी माली हालत से आँकी जाती है...! जिसकी ऐंठसिर्फ एक दिखावा है, आगंतुकों पर रौब झाड़ने के लिए...!

 गरीब कंचन पर  मेमसाहब की उमड़ती दया का भेद जानकर  छिगन पर जो असर होता है वह उपन्यास को एक नया आयाम देता है।

बड़ी सहजता से मानवीय मूल्यों को उद्घाटित करता एक मार्मिक उपन्यास..!

बिंबों के प्रयोग पर तो लक्ष्मी जी को महारथ हासिल है। 

"रात की बारिश और बर्फ रात को ही विदा ले गई है। जानकू चट्टी के पर्वतों पर बिछी बर्फ से गलबहियाँ किये उतरती धूप कुछ ज़्यादा ही साफ और उजली है। उसने ज़रा सा धूपिया पीला उबटन पास बहती जमना की श्यामल वर्णा देह पर भी मल दिया है, जिससे वह निखरी निखरी हो गई है।"

अंत तक बाँधे रखने वाला उपन्यास..!

बधाई लक्ष्मी शर्मा जी..!



Saturday, May 29, 2021

'अकाल में उत्सव '

 


पंकज सुबीर जी की अब तक की सारी कृतियाँ पढ़ चुकी हूँ . हर कृति को एक ही सिटिंग में ख़त्म किया. उनकी गठी हुई शैली और मारक बिंब उनके लेखन को इतना रोचक बना देते  हैं  कि किताब के पन्ने खुद ब खुद पलटते जाते हैं .

अकाल में उत्सव पढ़ते वक़्त शुरुआत में दिमाग कई बार भटका,पर जब कहानी ने गति पकड़ी, तो फिर किताब हाथ से नहीं छूटी. कहानी ख़त्म होते होते नौकरशाहों की पूरी कौम से नफरत हो गयी. नीचता की हर पराकाष्ठा लाँघकर भी यह कैसे सर उठाकर समाज में सम्माननीय व्यक्तियों की तरह जीते हैं, देखकर, पूरे सिस्टम से आस्था उठ गयी.

एक पूरी बिसात बिछी हुई है, सबके खाने तै हैं और सत्ता करती है सुनिश्चित किसे हाथी बनाना है, किसे घोडा , किसे ऊँट - और एक आम आदमी, एक गरीब किसान, उनकी चालों में फँसकर, अपनी जान से हाथ धोकर , उनकी शै और मात का बायस बनता रहता है. न जाने कितने किसान इस सियासी खेल में, काल का ग्रास बन गए , बनते जा रहे हैं .

इस किताब की विशेषता है, इसके मारक वाक्य, जो लेखक बीच बीच में धीरे से कह जाते हैं, और यही वाक्य इस पूरी कहानी का मर्म हैं .

" छोटा किसान जब तक लड़ सकता है, तब तक किसान रहता है और फिर हारकर मज़दूर हो जाता है"

जब बीवी के शरीर से वह आखरी गहना भी उत्तर जाता है, तब किसान पूरी तरह से टूट जाता है।  जब परंपराएं मजबूरी की भेंट चढ़ जाती हैं, जब कोई सहारा शेष नहीं बचता, जब फसल भी ओले और बेमौसम बरसात की भेंट चढ़ जाती है , जब क़र्ज़ की सिल्ली के बोझ से साँसें उखड़ने लगती हैं, तब वह किसानी छोड़, मज़दूर बनने पर विवश हो जाता है , क्योंकि पेट की आग कभी किसी की सगी नहीं होती. एक ऐसा सच जो गले में दर्द की गाँठ सा अटक जाता है  . 

" किसान के जीवन में बढ़ते दुःख उसकी पत्नी के शरीर पर घटते ज़ेवरों से आँक लिए जाते हैं”.

बदहाली में यही गहने तो उसके और उसके भूखे परिवार के लिए एकमात्र सहारा होते हैं, भूखे पेट में  निवाला  होते हैं . हर गहना, फसल कटने पर , फिर छुड़वा लेने की मंशा से गिरवी रखा जाता है, पर अंतत: उसी साहूकार की तिजोरी का निवाला बन जाता है. और दोहरी तिहरी मार से बेदम होता किसान टुकड़े टुकड़े बिखरता जाता है.

"धृतराष्ट्र को हर युग में देखने के लिए संजय की आवश्यकता पड़ती थी, पड़ती है और पड़ती रहेगी".

ओले और बेमौसम बारिश से नष्ट हुई फसल के नुक्सान का आंकलन राजधानी में बैठी सरकार, अपने नियुक्त किये लालची , घुरघों द्वारा – करती है। बिना सच झूठ जाने। सही तो है , बगैर तंत्र के सत्ता पंगु  थी और सदा रहेगी.

" क्रूरता आपको बहुत सारी इमोशनल मूर्खताओं से बचा लेती है ".

एक बहुत ही दुखद मोड़ कहानी का, जब अपनी पत्नी का आखरी ज़ेवर उसके पाँव की तोड़ी , वह सुनार के पास बैठा पिघलवा रहा है. चाँदी की हर रिसती बूँद के साथ उससे जुडी मीठी यादें धुआं होती जा रही है, एक गरीब किसान की  भावनाओं का भी कोई मोल नहीं. सुनार जानता है , कि किसान बहुत मजबूरी में ही गहना तुड़वाता है , उसके आँसू भी उससे छिपे नहीं रहते. पर उसे क्रूर होना पड़ता है, हर इमोशनल मूर्खता से बचे रहने  के लिए। एक और निष्ठुर सच।

दो दृश्य  इस कहानी में लेखक ने अपने कौशल से कालजयी कर दिए हैं.

एक जब वह अपनी पत्नी कमला का आखरी गहना गलवाने सुनार के पास जाता है. उस गहने से जुडी अनगिनत मीठी यादें आँसू बनकर उसके कुर्ते की आस्तीन में जज़्ब होती जाती हैं, उस दर्द की तरह जो उसके भीतर एक आग सा सब कुछ जलाता जाता है। चाँदी की तोड़ी की हर रिसती बूँद, राम प्रसाद का सीना छेदती जाती है , और वह दुखों के महासागर में डूबता उतराता विलाप करता जाता है . कितना करुण है वह दृश्य.

और दूसरा जब वह अपनी पत्नी को बैठाकर, कलेक्टर के दफ्तर से माँगकर लाये हुए पकवान खिलाता है.  दुनिया के मशहूर रोमांटिक सीन्स भी इस एक दृश्य के आगे फीके पड़ जाएंगे . लेखक की कलम ने स्याह रंगों में भी ऐसे रंग भर दिए हैं जो दुरूह है, उस लिपि कुटिया में इतने पुखराज बिखेर दिए हैं , जिनकी आभा कभी फीकी नहीं हो सकती. लेखक ने उस प्रेम मय पल को अमर कर दिया है.

एक बदसूरत सच्चाई को कितनी खूबसूरती से पेश किया जा सकता है, वह ‘अकाल में उत्सव’ को पढ़कर जाना। इस खूबसूरत कलाकृति के लिए पंकज सुबीर जी को अनंत बधाइयाँ और शुभकामनाएँ।   

 

Monday, May 3, 2021

 


२२ मार्च को खबर मिली कि सागर सरहदी नही रहे..!

बहुत ही दुःखद खबर..!

दसवीं कक्षा में थे तबसे जानते थे उन्हें। अक्सर हफ्ते में एक बार घर ज़रूर आते। हर शनिवार गोष्ठियाँ होतीं घर पर, उनमें सागर अंकल भी शिरकत करते। 

उन्हें पैदल चलने का बहुत शौक था। यह उन दिनों की बात है जब वे वर्ली में रहते थे, और हम बांद्रा में। टैक्सियों की स्ट्राइक जब होती तो वे पैदल वर्ली से हमारे घर चले आते। ताज्जुब होता..!

"आप थकते नही', हम अक्सर पूछते। वे हँसकर कहते "चलने से में नही थकता। जितना चाहो चला लो। मेरा पसंदीदा शगल है।"

हम लोगों ने उनका नाम 'पदयात्रा अंकल ' रख दिया था।

एक और खासियत थी उनकी। उनके बाल सफेद और मूँछें बिल्कुल काली थीं। जब भी उनसे पूछा यह कैसे, तो हँसकर कहते, " अरे ये उगीं भी तो 16 साल बाद..!

बाजार और कभी कभी, का ट्रायल दिखाने ले गए थे। तब हम छोटे थे, पहली बार ट्रायल रूम देखा था। 

बहुत सी यादें जुड़ीं हैं उनसे। विवाह पश्चात हम अलाहाबाद आ गए। जब घर जाना होता तब अवश्य मिलने आते। फिर तो वर्षों उनसे भेंट नही हुई। अभी कुछ वर्ष पहले अलाहाबाद आये थे। हमें पता न था। जब अगले दिन अखबार में पढ़ा कि उन्हें अलाहाबाद में 'लाइफटाइम अचीवमेंट' से सम्मानित किया गया है, तो तुरंत पता लगाया कहाँ रुके हैं। वे यात्रिक में रुके थे। जब फ़ोन किया तो रात काफी हो चुकी थी। जब याद दिलाया "अंकल हम सरस बोल रहे हैं", तो उन्हें याद करने में कुछ समय लगा। उनकी बोली से एहसास हो रहा था, कि उम्र ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया है। दिमाग पर ज़ोर दिया। हमने फिर कहा, "अंकल शब्द कुमार जी की बेटी।" एक दम से थकी सी आवाज़ चहक उठी।

" अरे बेटा तुम..!यहाँ कैसे।"

हमने कहा "अंकल शादी करके यहीं तो आये थे।

आपके आने की कोई खबर ही नही मिली नही तो हम भी उस प्रोग्राम में आते, आपको अवार्ड लेता देख, खूब जोरसे तालियाँ बजाते।"

वह हँस दिए, "क्या बताएँ बेटा इन लोगों ने बुलाया और मुझे ले आये। में तो आने की हालत में भी नही था। हमें याद ही नही रहा। उम्र हो गयी है अब। कब आ रही हो मिलने।"

मन हुआ उड़कर पहुँच जाएँ। पर रात बहुत हो चुकी थी, और वे थके हुए थे। हमने कहा "कल सुबह आयेंगे उनके आपसे मिलने।" वे बोले "बेटा हम तो सुबह सुबह निकल जायेंगे"

हम मन मसोसकर रह गए। कहा, "चलिए वहीं मुम्बई आकर ही मिलते हैं।"

मिलना टलता गया। और आज यह खबर..!

इतने प्रसिद्ध थे, उतनी सारी हिट्स दीं, सिलसिला, कभी कभी, बाजार, चाँदनी,इत्यादि। पर लेशमात्र भी घमंड नही था उनमें।

इत्तेफ़ाक़ से हमें गूगल पर उनकी वह तस्वीर मिल गयी, जैसा हमने उन्हें शुरू में देखा था। 

आप हमेशा याद रहेंगे अंकल..!

विनम्र श्रद्धांजलि...!


सरस दरबारी


 


 


तुम अब कूच की तैयारी करो...!



कोरोना इस शब्द से जितनी दहशत होती थी उतनी ही चिढ़ होने लगी है। बस कर भाई। यह कैसी प्यास है तुम्हारी जो बुझती ही नही। खप्परों खून पी गये, नर मुंडों का ढेर लगा पड़ा है, मरघट पटे पड़े हैं लाशों से, घरों में हाहाकार, दिलों में चीत्कार मचा है, पर तुमपर कोई असर नही हो रहा है, गिद्ध की तरह अब भी चोंच और पंजे गढ़ाए हो..!

लेकिन याद रखना, बार बार एक ही जगह पर चोट, उसे सुन्न कर देती है। हम भी सुन्न होते जा रहे हैं। और जिस दिन पूरी तरह सुन्न हो गए, तुम्हारा आतंक मिट जाएगा। नेस्तनाबूत हो जाओगे तुम। यह बात और है तब तक कितनों के घर बर्बाद कर जाओगे। 

आँगन से किलकरियाँ छीनी, सरों पर से छत, बड़ों का आशीष छीना तो कहीं जीवन से आश्रय।

 तुम पहली बार दहशत बनकर आये थे। लोग सहम गए थे, घरों में दुबक गए थे। उस गली से  दूरी रखते, उस मोहल्ले से न गुजरते जिसमें किसी को कोरोना हुआ होता। हउआ बन गए थे तुम। तुमने अपनी इज़्ज़त बना ली थी समाज में। लोग तुम्हारा मान रखते थे, दहशत ही से सही, पर कुछ इज़्ज़त थी तुम्हारी। अब लोग गालियाँ देते हैं तुम्हें, बद्दुआएं बरसती हैं तुमपर। 

तुम जब पहली बार आये थे, तो तुमने हमें हमारी गलतियों का एहसास  करवाया था। प्रकृति के साथ मिलकर कैसे रहा जा सकता है, यह पाठ पढ़ाया था। मछलियाँ तटों के करीब आ गईं थीं, पशु सड़कों पर विचरने लगे थे, पंछियों की बोलियाँ फिरसे रस घोलने लगीं थीं। बरसों से प्रदूषण के धुंध में छिपीं बर्फीली पहाड़ों की चोटियाँ दिखने लगीं थीं।आकाश, वायु जल सब  हमारा हस्तक्षेप न रहने से स्वच्छ प्रदूषण रहित हो गए थे।

 आश्चर्य आश्चर्य घोर आश्चर्य...यह भी तुम्हारी ही देन थी।

 सदैव अपनी दुनिया, सोशल मीडिया में लिप्त रहनेवालों को घर का , अपनों का महत्व समझाया था। घर की दाल रोटी में भी स्वाद है, यह जताया था। हम कितनी फिजूलखर्ची करते हैं, यह एहसास दिलवाया था। 

पर अब धिक्कार है तुमपर..!

तुमने इंसान को लालच का ऐसा घड़ा बनाकर छोड़ दिया, जिसका पेट भरता ही नही, तुमने मनुष्य को एक कफन नोच दानव बना दिया, जो बेबस, बीमार, मजबूरों का खून चूस रहा है। उनकी चिता पर अपनी रोटी सेक रहा है। लोग बीमारों को लेकर अस्पताल अस्पताल घूम रहे हैं, इलाज को तरस रहे हैं, और तुम्हें सिर्फ पैसा दिख रहा है...!

जिन अस्पतालों की तरफ कोई देखता न था, वह जीभर कर उगाही कर रहे हैं। ऑक्सीजन जैसी चीज किसे प्रकृति ने इफ़रात में दिया, उसीका मोल लगा काला बाजारी कर रहे हैं। लोगों की साँसों का सौदा कर रहे हैं। 

ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कला कृति हैं वह, यह भी भूल गया..!

तुमने बहुत कोशिश की, पर फिर भी 'कुछ' लोगों से हार गये। वे जो अपनी परवाह न कर तुमसे लोहा लेने को आगे बढ़े। वे जो अपनी संपत्ति बेचकर ज़रूरतमंदों की सहायता कर रहे हैं। वे जो दिन रात एक कर, सहायता पहुँचाने को तत्पर है। ऐसे भी लोग हैं दुनिया में, और ऐसे लोग ही तुम्हें तुम्हारी औकात बताएँगे। कर लो जितना ज़ुल्म चाहो, बिगाड़ दो इंसानों की नस्ल, पर यह मुट्ठीभर लोग अडिग रहकर तुम्हें धता बता रहे हैं। बस कुछ दिन और कर लो मनमानी, तुम्हारे दिन भी चुकने को हैं। तुम्हारे पाँव अब उखड़ने को है। रात कितनी भी काली हो, भोर नही रुकती । अब भी नही रुकेगी। बाँधो अपना बोरिया बिस्तर और हो जाओ दफा। बस कुछ दिन और..!

हफ्ता दो हफ्ता..!

चलते बनो। जब तक  निस्वार्थ लोग इस दुनिया में रहेंगे, बड़ी से बड़ी आपदा के पाँव उखड़ जाएँगे। 

तुम भी कूच की तैयारी करो..!


सरस दरबारी


Friday, November 27, 2020

देह समाई पंच तत्व में

 











देह समाई पंच तत्व में

घाटों पर मन ठहर गया है 


चलती जाती रीत जगत की 

जो आता 

उसको जाना है 

कर्म यहाँ बस रह जाते हैं 

रीते हाथों ही 

जाना है 


काया भोगे रह रह दुर्दिन 

स्मृति में आनन ठहर गया है 


जीवन के खाली पन्नों पर 

स्मृतियाँ रुक रुक  

छपती जातीं 

अंतस के गह्वर से उठ वह  

नैनों से फिर 

बहतीं जातीं 

भवसागर तो पार किया पर

कर्मों का धन ठहर गया है 


कंटक पथ पर हारा गर मन  

तो स्मृतियाँ

क्षमता बन जातीं

उनकी दी तदबीरें बढ़कर  

परिभव में 

साहस उकसातीं 


कब हो पाये दूर वह हमसे 

आशिष पावन ठहर गया है 


सरस दरबारी  



Saturday, November 7, 2020

विस्फोट


विस्फोट यूँहीं नही हुआ करते..

सब्र का ईंधन

भावनाओं का ताप

आक्रोश का ऑक्सीजन

जब मिलते हैं

सब्र गड़गड़ाता है

भावनाएँ खदबदाती हैं

आक्रोश धूल, गारे की शक्ल में

आसमान स्याह कर देता है

तब होता है विस्फोट..

जब भूख मुँह चिढ़ाती है

मक्कारी 

हर दौड़ जीत जाती है

और सच 

बैसाखियाँ साधता रह जाता है

तब होता है विस्फोट…


जब बिलबिलाती जनता को

 महलों से रानी फरमान सुनाती है

रोटी नही तो केक खा लो

राजा की बग्घी तले मासूम

दौड़ाकर कुचले जाते हैं

तब होता है विस्फोट…

तब होती है क्रांति

झुलस जाता है ऐशो आराम

झूल जाती है बादशाहत..

फाँसी के फन्दों पर

बुनाई करते हुए

गिनती जाती है

सताई हुई जनता

कटते हुए सिर

बच्चों, बूढ़ों, स्त्रियों के…

वहशियत नमूदार होती है फिरसे

अलग रूप में 

अलग पलड़े पर

होता है एक और विस्फ़ोट

तबाह करता हुआ

नसलें

इंसानियत

और

खुदा का खौफ...!


सरस दरबारी