एक पुरानी कहावत है , पूत के पाँव पालने में नज़र आ जाते हैं.
और यह बात काफी हद तक सच है. राहुल कुछ ही महीनों का था , करवट लेकर बैठना
सीख गया था. एक दिन पेट के बल सो रहा था, तभी टीवी पर उन दिनों का बड़ा ही
प्रचलित गीत बज उठा. 'अम्मा देख,
ओ
देख तेरा मुंडा बिगड़ा जाये ........'. और
देखते ही देखते , आँखें बंद किये वह दोनों हाथ तकिये पर
टिकाकर ज़ोर ज़ोर से झूमने लगा . उसके
माता पिताका जो बगल ही में
बैठे टीवी देख रहे थे, हँसते हँसते
बेहाल हो गए...! वॉल्यूम धीमी की, तो फिर सर रखकर सो गया, फिर
बढ़ाई और वह फिर आँखें बंद किये किये
झूमने लगा . उसी दिन से उन्हें यह अंदाज़ हो गया था कि उसे संगीत से ख़ास लगाव है.
जैसे जैसे राहुल बड़ा होता गया उन्होने महसूस किया की वह बगैर सीखे अपने छोटे से
सिंथेसाइज़र पर गीत निकाल लेता था . बहुत ताज्जुब होता था. कोई भी गीत सुनता ,
उँगलियाँ
सिंथ पर नचाता और मिनटों में वह धुन बज उठती.
फिर थोड़ा और बड़ा हुआ तो उसने गिटार सीखा और कॉलेज में अपना म्यूजिक बैंड बनाया और
कई स्टेज शोज भी किये. पर कॉलेज की पढ़ाई के दौरान सब कुछ छूट गया. उनका मानना था कि इससे पेट नहीं भरता, गृहस्थी
नहीं चलती। उसके लिए कोई रेसपेकटबल काम करो। गिटार अकेलेपन
का साथी और बैंड एक सपना बनकर रह गया।
यह सिर्फ एक राहुल की ही
कहानी नहीं है. हम लोगों में से कितने लोग अपने सपने वाकई पूरे कर पाते हैं. बड़े
होते होते एहसास होता है, की हम लोगों के बचपन के हुनर धीरे धीरे
या तो ख़त्म हो जाते हैं , या फिर प्राथमिकताओं की भेंट चढ़ जाते हैं. बच्चे जैसे जैसे बड़े होते हैं, हम उन्हें
ओब्सेर्व करते हैं, उनकी रुचियों को समझने की कोशिश करते हैं. कभी कभी
उन्हें बढ़ावा भी देते हैं. पर जब ज़रा भी महसूस होता है कि उसका शौक , पढ़ाई
के आड़े आ रहा है तो हम तुरंत उसपर लगाम कसकर , पढ़ाई और कैरियर का हवाला देकर , उसके शौकको दर किनार कर देते हैं . और अंतत: वह
उस शौक को परस्यू नहीं कर पाता
लेकिन वह चिंगारी कहीं भीतर दबी रह जाती है और वह खालीपन जीवन में
बना ही रह जाता है । वह बेमन से नौकरी करता है। हर
दिन एक बोझ सा और शाम चलो एक और दिन कटा के एहसास के साथ बीतते जाते हैं। बनना चाहता
था टीचर, पर बन गया इंजीनियर, या बनना चाहता था कुछ , बन गया कुछ।
और अपनी शिक्षा के बोझ तले दबा वह मजबूरी में ऑफिस जाता है, मन नहीं
लगता फिर भी जुटा रहता है, क्योंकि वह जकड़ा हुआ है गृहस्थी के जंजालों में, और अपनी
बँधी बँधाई आमदनी के साथ कोई रिस्क नहीं लेना चाहता। लिहाजा ढोता रहता है एक अनचाहा
बोझ। क्या इस तरह से वह अपने प्रॉफ़ेशन को अपना 100 प्रतिशत दे पाएगा। पर ज़रा सोचिए
अगर उसने अपने मनका प्रॉफ़ेशन चुना होता, कुछ ऐसा जिसमें
उसे मज़ा आता है, जो सोते जागते, उठते बैठते , उसके दिमाग पर चौबीसों घंटों हावी रहता है, तो वह कितना
बेहतर काम कर पाता। कितना खुश रहता। हो सकता
है , उसके शौक के हिसाब से उसकी आमदनी मौजूदा आमद से घाट बढ़ भी सकती थी, पर वह खुश
रहता।
अक्सर सुनने में आता है ,
की अमुक ने अपना कैरियर छोडकर , एक बिलकुल ही अलग व्यवसाय अपना लिया। कॉर्पोरेट दुनिया में एक ऊँची पोस्ट पर होने के बावजूद, नौकरी
छोड़ एक रैस्टौरेंट खोल लिया और अब बहुत खुश है । यह एक बहुत्त बड़ा निर्णय होता है, अपने सुरक्षा कवच से निकालकर, अपना कम्फर्ट जोने छोड़कर एक
सर्वथा भिन्न क्षेत्र में कदम रखना , महज़ इसलिए कि वह उसका पैशन है, बहुत
हिम्मत, दृढ़ता और लगन का परिचायक
है. पर हिम्मत भी वही करता है जो अपनी धुन
का पक्का हैं। और आखिरकार जब वह अपने शौक को कमाई
का जरिया बना लेता है तो सोचता है मैंने यह पहले क्यों नहीं किया। जीवन के इतने साल
बर्बाद कर दिये। पर चलो देर आए दुरुस्त आए।
यह माद्दा आजकल
की पीढ़ी में काफी हद तक दिखाई देता है. अच्छी खासी लगी लगाई नौकरी छोड़कर, आर्थिक
असुरक्षा की परवाह किए बगैर अपने आपको पूरी तरह
से तयार करके, सही गलत, भला बुरा, नाफा नुकसान, हर चीज़ को समझकर वे अंजाने रास्तों पर चल देते हैं। वे
रास्ते जो उन्हे उनके पैशन तक आखिरकार पहुँचा ही देते हैं। क्या ही अच्छा होता है अगर
हम इस बात को पहले ही समझ लेते, बच्चों की रुचि को पहचान लेते और उन्हें बढ़ावा देते।
इस दुविधा की बहुत बड़ी वजह है, माता पिता
का अल्प ज्ञान। एक ज़माना था जब गिनती के कुछ
ही व्यवसाय हुआ करते थे और अभिभावकों को इससे इतर कोई भी व्यवसाय चुनना असुरक्षित और
प्रतिष्ठाहीन लगता था। आज भी यह समस्या बनी
हुई है। जबकि सच्चाई तो यह है, कि अब इतने नए विकल्प मौजूद हैं, जिनके विषय
में आज की पीढ़ी जागरूक है जिसे वे अपनी अपनी रुचि के हिसाब से अपना सकते हैं, अच्छा कमा
सकते हैं और खुश रह सकते हैं। फिर क्यों न संवेदनशील और जिम्मेदार अभिभावक होने के
नाते हम अपने बच्चों को सही दिशा चुनने में उनकी मदत करें,न कि उन्हें
जीवनभर के लिए घुटनभरी ज़िंदगी के अधीन कर दें।
ज़रा सोचकर देखिये.....
आज विकल्प बहुत हैं लेकिन अभिभावकों की मानसिकता नहीं बदली है वो धनोपार्जन के सुरक्षित तरीके ही चाहते हैं . रूचि के किये गए कार्य में आनंद तो आता है लेकिन आज गलाकाट प्रतियोगिता और गृहस्थी की गाडी चलाने के लिए धन के महत्त्व को भी भुलाया नहीं जा सकता . लेकिन फिर भी यदि बच्चों की पसंद के काम को छानने में अभिभावक सहयोग दें तो निश्चय ही बच्चे ज़िन्दगी में आगे बढ़ने के लिए उर्जावान रहेंगे .
ReplyDeleteजी बिल्कुल ठीक कहा आपने संगीता जी
Deleteहार्दिक आभार...:)
सार्थक चिंतन को जागृत करता सामयिक आलेख ! अपनी हॉबीज़ को ही कैरियर बनाने के लिए शिक्षा के पारंपरिक ताने बाने से भी स्वयं को मुक्त करना होगा और आरम्भ से ही उस शिक्षा की ओर कदम बढ़ाने होंगे जहाँ बच्चे की प्रतिभा को और अधिक निखारा और सँवारा जा सके ! जो सब पढ़ रहे हैं उसे पढ़ कर उस बच्चे के सामने भी कैरियर के वही विकल्प खुले होंगे जो अन्य सभी के लिए खुले हैं !
ReplyDeleteबस अभिभावक थोडेसे जागरूक हो जाएं तो समस्या इतनी जटिल न हो।
Deleteहार्दिक आभार साधना जी..:)
बस अभिभावक थोडेसे जागरूक हो जाएं तो समस्या इतनी जटिल न हो।
Deleteहार्दिक आभार साधना जी..:)
उम्दा चिंतन...सार्थक लेखन!!
ReplyDeleteAchhi kahani hai
ReplyDeleteself publishing India