१)
कभी कभी एक छोटी सी बहस
बन जाती है चीर –
और लिपटे रह जाते हैं उसमें –
सारी समझदारी –
सारा प्यार –
सारा अपनापन !
अहम् खींचता जाता है उस चीर को
और बारी बारी से
दु:शासन और द्रौपदी बने हम
होने देते हैं तार तार
रिश्तों की मर्यादा को
और प्रेम
खड़ा रहता है
नि:वस्त्र..!!!
२)
कभी कभी
एक निर्दोष सी बहस
होकर विकराल
बन जाती है एक युद्ध !
जहाँ अहम् के धनुष्य से
चलते हैं तर्कों के तीर !
रिक्त होती जाती हैं संवेदनाएं
करते जाते एक दूजे को लहु लुहान
और रिश्तों को ध्वस्त !
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (23.01.2015) को "हम सब एक हैं" (चर्चा अंक-1867)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय राजेंद्र कुमार जी
Deleteसुन्दर....बहुत सुन्दर कविता !!
ReplyDeleteअनु
आपने सही कहा है जी .
ReplyDeleteमेरे ब्लोग्स पर आपका स्वागत है .
धन्यवाद.
विजय
बहुत सुन्दर .
ReplyDeleteनई पोस्ट : तुमने फ़िराक को देखा था
नई पोस्ट : मन का अनुराग
बहस का अंजाम ऐसा ही होता है,...
ReplyDeleteबिल्कुल सच कहा..होता है ऐसा ही।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति। वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबहस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे .. नियमानुसार न हो तो दुखदायी ही होती है ...
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति है ...
दु:शासन और द्रौपदी बने हम
ReplyDeleteहोने देते हैं तार तार
रिश्तों की मर्यादा को
और प्रेम
खड़ा रहता है
नि:वस्त्र..!!!
और इंतजार करते हैं फ़िर किसी कृष्ण का...................
http://savanxxx.blogspot.in
नकारात्मक बहस रिश्तों को सच ही तार तार कर देती है . बहस वही उचित जो सापेक्ष्य हो .
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