Saturday, December 17, 2022

मॉर्निंग वॉक – बाल हठ


मैया मैं तो चाँद खिलौना लैहौं । अब बताइये मैया चाँद कहाँ से लाकर दे। लेकिन नन्हें कृष्ण ने तो ज़िद ठान ली। यानि कि बालहठ की समस्या, द्वापर युग अर्थात 864,000 वर्ष पहले से चली आ रही है ।
बाल कृष्ण यहीं पर नहीं रुके। उसके साथ ‘अन्यथा’ भी जोड़ दिया। अगर हमारा हठ पूरा न किया तो
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं॥
सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं।
ह्वै हौं पूत नंद बाबा को , तेरौ सुत न कहैहौं॥
आगैं आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहि न जनैहौं।
यशोधा मैया भी समझदार थीं, उन्होने बहला दिया, डिसट्रैक्ट कर दिया ,
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहनिया दैहौं
और कन्हैया को सौदा पसंद आ गया...!
तेरी सौ, मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं।
तो इस तरह, बाल कृष्ण तो दुलहनियाँ के नाम पर मान गए। उन्होने अपना बाल हठ छोड़ दिया।
‘बालहठ’, अनादीकाल से चली आ रही समस्या है, और समय और ज़रूरत के हिसाब से इसके निवारण के तरीके भी बदलते रहे हैं।
अभिभाबवाक अपने बच्चे को खुश देखना चाहते  है। और उसके लिए अपनी
क्षमता नुसार, हर संभव प्रयास करते हैं। दोनों, पैसे कमाने में जुट जाते हैं।
 जिससे पैसे तो आते हैं, लेकिन और बहुत कुछ खो जाता है।
दरअसल वर्तमान पीढ़ी के बच्चों ने दुनिया देखी है। आखिर वर्ल्ड वाइड वेब का ज़माना है, बच्चे से लेकर बूढ़े तक सब इसी वेब में उलझे हुए हैं। और मज़े की बात तो यह है, कि इसमें कोई छटपटा भी नहीं रहा(जैसे अमूमन शिकार मकड़ी के जाल में तड़पता है) । सब मस्ती में झूला झूल
 रहे हैं।
हाँ तो आधुनिक बच्चे, चूँकि अधिक एक्स्पोसेड़ हैं, उनमें जागरूकता या कहें
अंतर्जाल पर उपलब्ध ज्ञान भी अधिक है। जो बड़ों की निगरानी के अभाव में
 उन्हें अनचाहे रास्तों पर धकेल सकते हैं। कच्ची उम्र में जब उन्हें मार्गदर्शन
की ज़रूरत होती हैतब उन्हें नौकरों और आयाओं के सुपुर्द कर दिया जाता है।
जिस वक़्त उन्हें माता पिता के प्यार और संरक्षण की आवश्यकता होती है, तब उन्हें कीमती विडियो गेम्स, फोन के लेटैस्ट मॉडेल्स देकर उस कमी को पूरा किया जाता है। इतनी आसानी से मिली चीजों का कोई महत्व नहीं रह जाता।
 धीरे धीरे खीज और ऊब अपनी जड़ें जमा लेती है। और फिर बात बात में
रूठना उनकी आदत बन जाती है। क्या चाहते हैं, यह वे स्वयं नहीं समझ
पाते,और अंतत: उसकी तलाश में भटक कर ड्रग्स, नशे की ओर उन्मुख होते हैंऔर गलत रास्तों पर चल पड़ते हैं। गलत सोच पालने लगते हैं। बरगलानेवालों इसी मौके की तलाश में रहते हैं। मौके बेमौके दूसरे अभिभावकों से आपकी तुलना कर आपको नीचा दिखाने में वे तनिक नहीं हिचकिचाते। यह सौदा अभिभावकों को बहुत महंगा पड़ता है। बच्चों का बड़ों के प्रति सम्मान, उनकी संवेदनशीलता, उनका बचपन ...! इस सौदे में, यह सब खो जाता है।
इसमें बच्चों का कितना दोष है ? क्या नौकर आयाएँ उसे वह संस्कार, वह
स्नेह वह अपनापन दे सकते हैं, जिनकी उसे उस पड़ाव पर सबसे अधिक
ज़रूरत है ? बच्चा उस जज़्बे को कैसे समझ सकेगा जिससे वह स्वयं वंचित
रहा ?
क्या पैसों और स्टेटस की एवज में यह कीमत कुछ अधिक नहीं?
 
सरस दरबारी   
 
 
 
 
 
 
 
 

 


12 comments:

  1. बहुत जरूरी और सार्थक आलेख.... पढ़ने, सोचने और समझने लायक

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  2. सौ बात की एक बात कि मोरल एज्युकेशन का अभाव है आजकल के बच्चों के लिए।

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    1. बच्चे मॉरल एडुकेशन कहाँ से पाएँ। परिवार एकल हो गए हैं। उसमें भी अभिभावकों के पास बच्चों के लिए समय नहीं ....!

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  3. बेहतरीन रचना

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  4. आज का हाईटैक बालक तो कहेगा- "मैं तो चाँद पे जैहों।" भले ही आप अगले दिन की रोटी के जुगाड़ की चिंता में क्यों न हों😊।

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    1. कोई ताज्जुब नहीं आदरणीय ...:D

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  5. बहुत सटीक...
    सार्थक सृजन ।

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  6. सोचने पर मजबूर कर दिया सरस जी।हमने बचपन में संयुक्त परिवार में अपने सीमित हिस्से में खुश रहने की कला सीखी थी पर एकल परिवार में पले अपने बच्चों में सन्तोष का वो संस्कार नहीं रोप पाये।अब ये समय की गति कहें अथवा अभिभावकों की भावनात्मक विवशता कि वे अपनी संतान के प्रति स्नेहातिरेक के चलते अनजाने में ही उ
    उनमें असंवेदनशील और क्रूरता का बीजारोपण कर रहे हैं। अबोध उम्र का बालहठ किसी दिन क्रूर राजहठ में कैसे बदल जाता है पता ही नहीं चलता।चिंतन की जरुरत है आज 🙏

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  7. बहुत ही सुंदर प्रतिकृया दी आपने रेणुजी । वास्तव में आलेख का उद्देश्य यही था। सादर आभार ....!

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