Wednesday, October 9, 2019

‘अहम्’– क्या अब भी ज़रूरी है ?



कुछ दिन पहले एक समाचार पढ़ा . एक नव दंपत्ति के बीच एक छोटीसी समस्या को लेकर बहस हो गयी. पत्नी चाहती थी की घर के कामों के लिए एक नौकरानी रख ले और पति इससे सहमत न था . बात इतनी बढ़ी की दोनों में तलाक की नौबत आ गयी. इतने पर भी वे दोनों नहीं चेते, बस अपने अपने अहम् को पोसते रहे. अंतत: प्रेम ,तर्क और समझदारी को हराकर, अहम् जीत गया ...! दोनों में तलाक हो गया  ...इतनी छोटीसी बात पर तलाक....! कितना हास्यास्पद लगता है यह...!!!
लेकिन क्या यह बात इतनी छोटी है जितना कि प्रतीत हो रही है. लड़ाई का मुद्दा तो बहुत छोटा था जिसे बड़ी सहजता से सुलझाया जा सकता था. कोई भी लड़ाई अगर सिर्फ मुद्दे की लड़ाई हो तो उसका हल निकाला जा सकता है. पर अक्सर लडाइयाँ मुद्दे से हटकर ‘अहम्’ की लड़ाई बन जातीं हैं. अगर ठन्डे दिमाग से सोचिये तो आपको खुद एहसास होगा की वह लड़ाई जिस वजह से छिड़ी थी वह वजह तो बहुत पीछे छूट चुकी थी और अब यह केवल एक अहम् की लड़ाई रह गयी थी, जहाँ दोनों में से कोई झुकने को तैयार नहीं था. और जब कोई भी लड़ाई, अहम् की लड़ाई बन जाती है तो सारे तर्क, सारे रिश्ते, सारी भावनाएँ गौण हो जाती है बस रह जाता है एक अहम् जिसकी ‘जीत’ सर्वोपर्री हो जाती है. तब सब कुछ ताक़ पर रखकर व्यक्ति के लिए उसका जीतना हर हाल में ज़रूरी हो जाता है. और ऐसे में न जाने कितने घर, कितने रिश्ते, कितनी सियासतें नेस्तनाबूत हो जाते हैं. दोस्त दुश्मन बन जाते हैं, भाइयों में फूट पड़ जाती है, बच्चे माता पिता से विलग हो जाते हैं. और जब यह लड़ाई पति पत्नी के बीच आ खड़ी होती है और दोनों में से कोई भी झुकने को तैयार नहीं होता तो न जाने कितने जीवन एक ही झटके में तबाह हो जाते हैं और सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता हैं बच्चों को. अगर पराश्रित हों तो और भी ज्यादा. वह मासूमों से उनका बचपन , युवाओं से उनके सपने और वृधाश्रित माता पिता से उनका का आखरी सहारा छीन लेते हैं. दो परिवारों के बीच की इस नींव को मजबूती सिर्फ इन दोनों का साथ, सहिष्णुता, और आपसी समझदारी ही दे सकती है. तो फिर क्यों न अहम् को ताक़ पर रखकर भुला दें?
आज हम अपनी बेटियों की सुरक्षा को लेकर डरे सहमे रहते हैं. जब तक वह घर नहीं आ जातीं, मन अनजानी आशंकाओं से घिरा रहता है. और उनके आने में थोडासा भी विलम्ब, ऐसी संभावनाओं के मक्कड़ जाल में मन को जकड लेता है जो दुश्मन के मन में भी नहीं उठती होंगी. आज भी पुरुषों का एक वर्ग ऐसा है जो समाज में औरत की बढ़ती साख को पचा नहीं पा रहा. युवतियों का इतनी आज़ादी से , निडर हो, घर से निकलना उन्हें नहीं सुहा रहा . कहीं उन्हें अपना वर्चस्व छिनता सा महसूस होने लगता है. औरतों का स्वाबलंबन, स्त्री सशक्तिकरण, उन्हें अपने अहम् पर एक तमाचा सा लगता है, जो उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं. नतीजतन, अपना ‘चुटहिल’ अहम् लेकर वह निकल पड़ते हैं, अपनी भड़ांस निकालने. यह अहम् की लड़ाई नहीं तो और क्या है ? एक पुरुष का अहम् –जिसका आये दिन समाज की युवतियाँ शिकार हो रही है, कभी एसिड अटैक, कभी बलात्कार, कभी जिंदा जला देना ! ऐसी ऐसी घृणित दुर्घटनाएँ होतीं हैं की सभ्य पुरुष शर्म से गढ़ जायें. जबकि यह विकृत मानसिकता के पुरुष, योग्य और पर्याप्त दंड के अभाव में, निडर हो, नए नए शिकार खोजते रहते हैं. कितना तर्क विरुद्ध , कितना अविवेकपूर्ण है ‘अहम्’. फिर क्यों हम अहम् को पालें?
अपना धर्म हर किसी को प्रिय होता है और हर धर्म एक ही भाषा बोलता है, प्यार की भाषा, भाई चारे की भाषा. तो धर्म का अनुसरण करने वाले फिर खून खराबे पर क्यों  उतर आते हैं. धर्म की कोई भी किताब खोल लें, उसमें सहिष्णुता और प्रेम ही का पाठ मिलेगा, फिर कुछ धर्म के अनुयायी उसे इतना वीभत्स क्यों बना देते हैं. या की वे अपनी मान्यताओं, अपनी सोच को समाज पर थोपकर उसे धर्म का आवरण पहना, सिर्फ मनमानी करना चाहते हैं ? अपनी सोच पूरे समाज पर, पूरे विश्व पर थोपना चाहते हैं ? यह ‘अहम्’ नहीं तो और क्या है ? उनका अहम् किसी और धर्म को बीस कैसे होने दे सकता हैं. और जब यह अहम् विभिन्न धर्मों के बीच फन उठाता है, तो समाज में वह होता है जो सारी मानवजाति को खून के आँसू रुलाता है. बढ़ जाते है अराजकता, भय और आतंक. एक बार फिर मासूम बलि चढ़ते हैं, वही खून खराबे की कहानी, फिर दोहराई जाती है. और गूंजता रहता हैं अहम् का अट्टाहस, जब माएँ अपने शिशुओं को, रीती आँखों से आखरी बार नहलाती हैं, जब सुहागनें अपने हाथों की मेहँदी खुरच खुरच कर निकालती हैं, जब वृद्ध पिता जवान बेटों के शव को कन्धा देते हैं ..और रह जातीं हैं कभी न भूलने वाली तारीखें, कभी न सूखने वाले आँसू और कभी न भरनेवाले ज़ख्म..फिर चाहे वह ९/११ की यादें हों २६/ ११ की दहशत हो या पेशावर में हुए संहार की व्यथा हो.
.......कितना क्रूर है ‘अहम्’.
क्या फिर भी, अहम् को पोसना, आपको तर्कसंगत लगता है....?          

सरस दरबारी

Sunday, October 6, 2019

बिटिया मैके आय




देवी माँ का रूप धर, बिटिया मैके आय
तरस रहे जो दरस को ,देख देख अघाय

माटी की बिटिया सजी , पहन वस्त्र परिधान
अस्त्र शस्त्र से लैस , सजे  भाल अभिमान

जब तक रहती देहरी , पर्व मने दिन रात
खुशियाँ सब वाचाल हों , दुख हो भूली बात

जब विदाई की बेला , द्वार खड़ी हो जाय
कटता जाये हर जिया , घर में मातम छाय

बरसों की इस रीत को  कोई बदल न पाय
दो दिन बिटिया संग रह,लौट ससुर घर जाय
 
माटी से जीवन मिला , श्रद्धा प्राण जिलाय 
माटी की है देह यह,  माटी में मिल जाय     

सरस दरबारी



यक्ष प्रश्



सन 2040
राहुल स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहा था।
“अरे बेटा अपनी नरिशमेंट पिल्स रख लीं।”
“हाँ माँ”
“और मास्क...!”
“हाँ माँ रोज़ वही सवाल। घर से बाहर जा रहा हूँ। साँस इतनी फूलती है, उसके बिना एक कदम नहीं चल पाऊँगा।”
“जानती हूँ बेटा, इसका महताव जानती हूँ इसीलिए तो एहतियातन पूछ लेती हूँ”, माँ ने मायूसी से जवाब दिया।  
राहुल अपनी उड़न तश्तरी के आकार के शटल में स्कूल पहुँच गया।
“सुनो बच्चों आज तुम्हें कुछ दिखाना है,” कहकर उनकी मैम ने एक तीन आयामी चित्र प्रक्षेपित किया।  
एक अचंभित स्वर क्लास में गूँज गया। बच्चे फटी आँखों से उस खूबसूरत दृश्य को देख रहे थे। चारों तरफ हरियाली, मंद मंद बयार से पवन चक्कियों के विशाल पर घूम रहे थे। सुंदर हरे भरे स्वस्थ पेड़, क्यारियों में करीने से सजे रंगीन फूल, मीलों फैली हरियाली। शुभ्र चमकते स्वच्छ मकान और आकाश की आभा तो देखते ही बनती थी। धुला हुआ नीला आसमान जहाँ बादल रुई के फायों से हल्के हो चहलकदमी कर रहे थे।
मैम ने मुस्कुराकर देखा, बच्चे खुले मुँह और फटी आँखों से यह तस्वीर देख रहे थे । तभी राहुल बोला,
यह क्या है मैम, इतनी खूबसूरत ...! पहले कभी नहीं देखी...!”
“यह वही धरती है, जहाँ हम रहते हैं।”
 “क्या...! मैम, पर यहाँ तो ऊँची ऊँची चिमनियाँ हैं, जहाँ से मैले , बदबूदार धुएँ के बादल निकलते हैं। और आसमान में इस कदर छाए रहते हैं,कि सूरज की रोशनी भी हम तक नहीं पहुँच पाती। इस माहौल में दम घुटता है। खुलकर साँस तो लेने की तो सोच ही नहीं सकते। हम मान ही नहीं सकते , यह खूबसूरत दृश्य हमारी इसी पृथ्वी का है। क्या वाकई मैम....!”
“हाँ बच्चों हमारी शस्य श्यामला धरती ही है यह, जहाँ हम सब रहते हैं। धरती के पास इतनी धरोहर थी, कि सभी संतुष्ट होकर रह सकते थे । पर हमारे लालच का पेट वह नहीं भर सकी। मानव स्वार्थी हो गया। और, और के लालच में, पृथ्वी के प्रकृतिक संसाधनों का दोहन करता रहा। वायु, जल, आकाश सब कुछ दूषित कर दिया। आज अपनी आनेवाली पीढ़ियों को विरासत में यह धरती दे दी , जिसपर हम रहते हैं। पूरी तरह नष्ट करके।
बच्चे सभी उदास थे।
“मैम क्या यह अब पहले जैसी नहीं हो सकती”
मैम ने पहले उस सुंदर पृथ्वी की ओर नज़र भर कर देखा और फिर खिड़की के बाहर झाँकने लगीं। कल कारखानों की ऊँची चिमनियों से निकलते काले घने धुएँ के बादल, नालों में बहता रसायन, कंक्रीट का फैला अथाह जंगल, रंग विहीन दुनिया, जहाँ नाम को भी हरियाली नहीं थी। क्लास में बच्चों के आगे रखे उनके गॅस मास्क। मैम चुप थीं।
हवा में राहुल का प्रश्न लहरा रहा था।

सरस दरबारी  



Wednesday, April 3, 2019

मेरी बेटी अब माँ बन गयी है


मेरी बेटी अब माँ बन गयी है


मेरी बेटी अब माँ बन गयी है
बचपन में
कई बार पोछें हैं मेरे आँसू
फ्रॉक के घेर से
ज़ख्मों पर फूँक मार
उड़ाकर दर्द को
हथेलियाँ नचा
काफूर कर दी है सारी पीड़ा...
अनेकों बार 
छोटीसी गोद में सिर रख
दुलारा है मेरी थकन को
और भर दी है स्फूर्ति...
अब वह नन्ही
बड़ी हो गई है 
नन्ही को सीने से लगा
हरती है उसकी पीड़ा
आँचल में छिपा 
दुलारती है उसे
भरती है जीवन की ऊर्जा।
ताज्जुब करती है
माँ,
माँ बनना कितना सुखद होता है
एक विचित्र सा एहसास
मेरे खून, माँसपेशियों से बनी
मेरा अंश..!
मेरा अपना सृजन..!
अद्वितीय है 
यह अनुभव माँ
निहारती हुए
हर हरकत पर भरमाते हुए
छिपा लेती है उसे दुनिया से
बुरी नज़र से दूर।
मेरी नन्ही अब माँ बन गयी है।

सरस दरबारी

Monday, April 1, 2019

लहरें ......


लहरों को देखकर अक्सर मन में कई विचार कौंधते हैं .....

समंदर के किनारे बैठे
कभी लहरों को गौर से देखा है
एक दूसरे से होड़ लगाते हुए ..
हर लहर तेज़ी से बढ़कर ...
कोई  छोर  छूने  की पुरजोर  कोशिश  करती
फेनिल सपनों के निशाँ छोड़ -
लौट आती -
और आती हुई लहर दूने जोश से
उसे काटती हुई आगे बढ़ जाती
लेकिन यथा शक्ति प्रयत्न के बाद
वह भी थककर लौट आती
.......बिलकुल हमारी बहस की तरह !!!!!


             (२)

कभी शोर सुना है लहरों का ....
दो छोटी छोटी लहरें -
हाथों में हाथ डाले -
ज्यूँ ही सागर से दूर जाने की
कोशिश करती हैं-
गरजती हुई बड़ी लहरें
उनका पीछा करती हुई
दौड़ी आती हैं -
और उन्हें नेस्तनाबूत कर
लौट जाती हैं -
बस किनारे पर रह जाते हैं -
सपने-
ख्वाईशें -
और जिद्द-
साथ रहने की ....
फेन की शक्ल में ...!!!!!

           (३ )

लहरों को मान मुनव्वल करते देखा है कभी !
एक लहर जैसे ही रूठकर आगे बढ़ती है
वैसे ही दूसरी लहर
दौड़ी दौड़ी
उसे मनाने पहुँच जाती है
फिर दोनों ही मुस्कुराकर -
अपनी फेनिल ख़ुशी
किनारे पर छोड़ते हुए
साथ लौट आते हैं
दो प्रेमियों की तरह....!!!!!

                      ( ४ )

कभी कभी लहरें -
अल्हड़ युवतियों सी
एक स्वछन्द वातावरण में
विचरने निकल पड़तीं हैं ---
घर से दूर -
एल अनजान छोर पर !
तभी बड़ी लहरें
माता पिता की चिंताएँ -
पुकारती हुई
बढ़ती आती हैं ...
देखना बच्चों संभलकर
यह दुनिया बहुत बुरी है
कहीं खो न जाना
अपना ख़याल रखना -
लगभग चीखती हुई सी
वह बड़ी लहर उनके पीछे पीछे भागती है ...
लेकिन तब तक -
किनारे की रेत -
सोख चुकी होती है उन्हें -
बस रह जाते हैं कुछ फेनिल अवशेष
यादें बन .....
आँसू बन ......
तथाकथित कलंक बन ....!!!!! 

सरस दरबारी

लघुकथा - ब्रह्मराक्षस






पिछले कुछ दिनों से सजीव बहुत चिड़चिड़ा हो गया था । सोमा जब भी लैपटाप लेकर बैठती , उसका चिड़चिड़ा पन और बढ़ जाता। सोमा छेड़ छेड़कर बात करने की कोशिश करती पर सजीव का पारा और चढ़ जाता । 
"क्या बात है सजीव, क्यों इतने शॉर्ट टेम्पेर्ड हो गए हो । ज़रा ज़रा सी बात पर उलझ जाते हो। आखिर किस बात से नाराज़ हो बताओ भी तो ।" 
"किसी बात से नहीं। तुम्हारे पास तो मेरे लिए टाइम ही नहीं रह गया। जब देखो लैपटाप लेकर बैठी रहती हो।”
"कहाँ सजीव ? जितनी देर घर पर रहते हो तुम्हारे ही आगे पीछे घूमती रहती हूँ। जब बिज़ि रहते हो, तभी अपना काम लेकर बैठती हूँ।" 
"कौन सा काम , म्यूचुअल हौसला अफजाई । यह भी कोई काम हुआ। न जाने कैसे कैसे लोग तुम्हारी पोस्ट्स पर कमेंट करते रहते हैं, और तुम स्माइलीस भेजती रहती हो ।"
"यह तुम्हें क्या हो गया है सजीव , यह मेरे मित्र हैं। और मैंने तो कभी ऐतराज नहीं किया जब तुम घंटों फ़ेसबुक पर चैट करते रहते हो । मैं तो सिर्फ उनके कमेंट्स के ऐवज में उनका शुक्रिया अदा करती हूँ । तुम इतने पढे लिखे होकर ऐसी बात कर रहे हो ।" 
"बस यही तो । मेरा पढ़ा लिखा होना ही मेरे लिए अभिशाप बन गया है । अनपढ़ होता तो हाथ उठाकर अपनी बात मनवा लेता। पर पढ़ा लिखा होना ही मेरी बेड़ियाँ बन गया है ।" 
सोमा अवाक थी। 
सजीव दरवाजा भाड़ से बंद कर घर से बाहर निकल गया। 
अहम का ब्रह्मराक्षस सामने खड़ा मुस्कुरा रहा था।


सरस दरबारी