Friday, November 27, 2020

देह समाई पंच तत्व में

 











देह समाई पंच तत्व में

घाटों पर मन ठहर गया है 


चलती जाती रीत जगत की 

जो आता 

उसको जाना है 

कर्म यहाँ बस रह जाते हैं 

रीते हाथों ही 

जाना है 


काया भोगे रह रह दुर्दिन 

स्मृति में आनन ठहर गया है 


जीवन के खाली पन्नों पर 

स्मृतियाँ रुक रुक  

छपती जातीं 

अंतस के गह्वर से उठ वह  

नैनों से फिर 

बहतीं जातीं 

भवसागर तो पार किया पर

कर्मों का धन ठहर गया है 


कंटक पथ पर हारा गर मन  

तो स्मृतियाँ

क्षमता बन जातीं

उनकी दी तदबीरें बढ़कर  

परिभव में 

साहस उकसातीं 


कब हो पाये दूर वह हमसे 

आशिष पावन ठहर गया है 


सरस दरबारी  



Saturday, November 7, 2020

विस्फोट


विस्फोट यूँहीं नही हुआ करते..

सब्र का ईंधन

भावनाओं का ताप

आक्रोश का ऑक्सीजन

जब मिलते हैं

सब्र गड़गड़ाता है

भावनाएँ खदबदाती हैं

आक्रोश धूल, गारे की शक्ल में

आसमान स्याह कर देता है

तब होता है विस्फोट..

जब भूख मुँह चिढ़ाती है

मक्कारी 

हर दौड़ जीत जाती है

और सच 

बैसाखियाँ साधता रह जाता है

तब होता है विस्फोट…


जब बिलबिलाती जनता को

 महलों से रानी फरमान सुनाती है

रोटी नही तो केक खा लो

राजा की बग्घी तले मासूम

दौड़ाकर कुचले जाते हैं

तब होता है विस्फोट…

तब होती है क्रांति

झुलस जाता है ऐशो आराम

झूल जाती है बादशाहत..

फाँसी के फन्दों पर

बुनाई करते हुए

गिनती जाती है

सताई हुई जनता

कटते हुए सिर

बच्चों, बूढ़ों, स्त्रियों के…

वहशियत नमूदार होती है फिरसे

अलग रूप में 

अलग पलड़े पर

होता है एक और विस्फ़ोट

तबाह करता हुआ

नसलें

इंसानियत

और

खुदा का खौफ...!


सरस दरबारी


Friday, November 6, 2020

औरत तुम भी कमाल हो


कब समझोगी कि

पुरुषों की नज़र में

तुम्हारी अच्छाइयाँ 

तुम्हारी कमजोरियाँ

ही रहेंगी…


हर रूप में हारी हो

बेटी होने के नाते

प्राथमिकताओं से

जो भाई के पक्ष में रहीं…

बीवी होने के नाते 

कर्तव्यों से

जो सिर्फ तुम्हारे हिस्से में रहे…

माँ होने के नाते

त्यागसे जो सदा तुम्हारा

फ़र्ज़ रहा…

बेटे और पति की अनबन में 

 तारतम्य की लचीली 

डोर पर,

बिना बाँस चलती रहीं

बार बार गिर

टूटतीं रहीं…

तुम्हारा समर्पण 

उछाला जाता रहा

फुटबॉल सा

पाले बदलते रहे

कभी एक की ताकत बनीं

तो दूसरे की… 

बिखरतीं रहीं

बार बार सिमटती रहीं 

पारे सी…

अनुभव सिखाता है

पर तुम रहीं मूर्ख की मूर्ख

अनुभवों से भी न सीखा...

छीजती रहीं

मिटाती रहीं 

अपना अस्तित्व

ओस की बूँद सम...

बिछी रही कदमों में 

हरसिंगार सी

बिखेरती रहीं खुशबू 

शीतलता, स्नेह ...

तुम्हारे हिस्से क्या आया ? 


सरस दरबारी