Friday, November 30, 2012

स्मृतियाँ




कभी कभी स्मृतियाँ-
दबे पाँव आकार -
एक पत्थर फ़ेंक जाती हैं
उस शांत नीरवता में -
जिसे हम सबकी नज़रसे-
अपनी नज़रसे -
ओझल कर -
इस मुग़ालते में जीते हैं -
की हम भूल गए उन्हें .
लेकिन सच तो यह है -
कि उस छिड़ी सतह पर उभरा मैल -
पुन: जिला देता है
उन कड़वाहटओं   को-
जिन्हें उन्हीं स्मृतियों में लपेट
दफना आए थे हम !
और फिर झेलना होता है
एक लम्बा दौर
उस मैल के साफ़ होने का -
रिश्तों के स्थिर होने का ......


Thursday, November 8, 2012

विरह







 स्टेशन के उस पीपल के नीचे -
एक छोटीसी गृहस्थी बसा
रहती आई है वह-a
पिछले पच्चीस वर्षों से -
हर सवेरा एक जीने की उम्मीद बनकर आता
और हर रात मौत का सदक़ा बन जाती !
जीने मरने का यह क्रम -
अविरल..अविरत... चलता हुआ-
आनेवाली हर ट्रेन से बंधती आस -
लौट आती ...
सूनी पटरियों से खुद को बटोरती हुई .....
और यह क्रम यूहीं चलता रहता ....
कौन था वह ...
जो कर गया
यह लम्बा विरह उसके नाम !!!

Wednesday, November 7, 2012

नारी विमर्श -




आज  से ६ दशक पहले , प्रसिद्द विचारक सार्तरे न कहा था की स्त्री शक्तिरूप है -उसके अन्दर आत्मविश्वास  और शक्ति का ऐसा स्त्रोत है जिसकी कल्पना  भी नहीं की जा सकती . वह क्या नहीं कर सकती - उसके अन्दर एक ऐसा सुप्त ज्वालामुखी है जो समय आने पर  कहर बनकर फट सकता है . वह मुश्किल से मुश्किल कार्य को सहजता से कर लेती है जबकि पुरुष हार मान लेता है .
हमारे शास्त्रों में स्त्री को शक्ति और दुर्गा का रूप माना गया है , लेकिन जब उसे कदम कदम पर प्रताड़ित होता देखते हैः तो अनायास ही यह प्रश्न फन फैलाकर खड़ा हो जाता है की नारी की इस दशा के लिए कौन दोषी है !!!!
इसकी जड़ तक पहुँचने में पर्त दर पर्त खुलती जाती है और दृष्टिगोचर होता है वह सामाजिक ढांचा जिसे हमने रुढियों का जामा पहना रखा है. स्त्री ने हर कदम पर प्रताड़ना सही ...स्त्री पुरुष के बीच का भेदभाव उसके जन्म से पहले ही निश्चित हो जाता है .....तभी तो गर्भ में ही उससे जीने का अधिकार छीन लिया जाता है ...जो पैदा हो जाती हैं...कूड़े के ढेर पर अध् खाई, अध् नुची पाई जाती हैं..और जो बच जाती हैं उन्हें बचपन से ही सहनशीलता की घुट्टी पिलाई जाती है ...छोटे छोटे सुखों से कदम कदम पर वंचित रखा जाता है .....वह खेलना चाहती है , तो छोटे बहाई बहनों का भार उसपर थोप दिया जाता है ...पढ़ना चाहती है तो भाई की पढाई को प्राथमिकता दी जाती है ...पढ़कर क्या करना है ...चूल्हा देखो ..घर संभालो...और वह इच्छाओं को उसी कच्ची उम्र से तिलांजलि देना सीख जाती है
वह देखती है की घर के सारे निर्णय घर के पुरुष लेते हैं ...घर की स्त्रियों से सलाह करना अपना अपमान समझते हैं ...उसके साथ पल रहा उसका भाई भी यही देखता है और अनजाने ही घर की स्त्रियों के प्रति एक हीन भावना ...बचपन के कच्चे मन पर अंकित हो जाती है ....और वह  बड़ा होकर अपने बड़ों का अनुसरण करता है .....
पुरानी मान्यताएं जैसे बेटा ही मुंह में पानी  डालेगा उसे एक 'पीठिका' पर रख देते हैं और वह अपने को ऊंचा और घर की स्त्रियों को गौण समझने लगता है ...और इसके विपरीत उस बालिका को असंख्य बार समझाया जाता है की अपनी इच्छाओं को दबाना सीखो ...दूसरे घर जाना है ....
सहसा ही वह बच्ची दूसरे घर जाकर एकदम से बड़ी हो जाती है ....भाई और पिता के संरक्षण से निकलकर पति और श्वसुर के संरक्षण में पहुँच जाती है ...वहां वही सब फिर दोहराया जाता है .....इसमें सास और नन्द की जलन और डाह का भी समावेश होता है ....वह कुंठित होकर रह जाती है
इस कुंठा की सबसे बड़ी वजह है , साक्षरता की कमी अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञता ,और अपने प्रति सम्मान की कमी.

 औरत जब तक अपना सम्मान स्वयं नहीं करेगी कोई और उसे वह मान नहीं देगा ..यह दुनिया की रीत है ...जब तक उसके अन्दर, समाज के अन्दर उसके अधिकारों के प्रति जागरूकता नहीं आयेगी उसका यही हश्र होगा .पुरुष को यह समझना होगा की वह अकेला कुछ नहीं कर सकता ..उसे कदम कदम पर स्त्री की आवशयकता है - वह उसकी अर्धांगिनी है ...उसकी शक्ति है ...उसकी हमदर्द है ..उसकी माँ, सखा ,प्रेमिका, पुत्री, उसके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है ...और यह भावना तभी आ सकती है जब स्त्री अपना सम्मान करना स्वयं सीखे .....अगर वह अपने आपको पावदान  बनाकर रखेगी तो आजीवन पावदान ही बनी रहेगी ..उसे  अपना स्थान खुद चुनना होगा ...लेकिन यह तभी मुमकिन है जब वह खुद साक्षर हो...अपने अधिकारों को पहचाने...तभी वह अपनी बेटी को सम्मान से जीना सिखा पायेगी ...अपने बच्चों को सही संस्कार दे पायेगी ...तभी अपने बेटे को बता पायेगी की यह तुम्हारी बड़ी बहन है ...इसका आदर करना सीखो.
औरत सिर्फ पालना ही नहीं झुला सकती वह देश को चला सकती है , वह अंतरिक्ष में उड़ान भार सकती है , वह पर्वतारोहण कर सकती है , वह आकाश में उड़ान भार सकती है , समुन्दर की गहरायी नाप सकती है , वह शातिर से शातिर बदमाशों को काबू कर सकती है ,  वह विषम से विषम परिस्तिथियों से डटकर मुकाबला कर सकती है ......
तभी वह श्रीमती गाँधी,  बछेंद्री पाल, कल्पना चावला, किरण बेदी , बरखा दत्त बन सकती है....वह पुरुष के वर्चस्व में सेंध लगा चुकी है   .
इतनी कार्य क्षमता होते हुए भी वह प्रताड़ित है , दहेज़ के नाम पर आज भी जलाई जाती है , क्योंकि आज भी पुरुष के नज़र में उसके लिए सम्मान की कमी है ...उसे यह समझना होगा की उसकी भी इच्छाएं है, सपने हैं, आकांक्षाएं हैं , कुछ करने की ललक है ...समझना होगा की वह एक संगिनी है , खूंटे से बंधी गाय नहीं ..कदम कदम पर साथ देने वाली बैसाखी है .
फिर सम्मान के साथ आयेगी समता, हर जगह बराबरी का हिस्सा देकर ही उसे उसकी सही ताक़त का, उसके अनुभव उसके योगदान का आस्वाद पुरुष वर्ग को मिलेगा और तब उसे अहसास होगा उसकी क्षमता का .
 फिर आती है स्वाबलंबन की बारी .जब तक स्त्रियों के अन्दर यह भावना तीव्र नहीं होगी तब तक वह घर की दहलीज़ पार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएंगी ...उस गुंजलक को तोडना ज़रूरी है जो परम्पराओं ने हमारे इर्द गिर्द बना रखा है ...उस कुंडली को तोड़कर ही हम शोषण के विषैले पाश से स्वयं को मुक्त कर सकते हैं.
और हमारी आज की नारी ...इस बंधन से मुक्त होनेमें सफल भी हुई है . वह निकली है घरोंसे, गलियोंसे, शहरोंसे, देशों से ..लेकिन कुछ महत्वाकांक्षी स्त्रियों ने अपनी कामना की पूर्ति के लिए कुछ ऐसे सामाजिक बन्धनों को तोडा है , जो उसकी सुरक्षा के लिए बने थे . बन्धनों से मुक्त  होने की जल्दबाजी में उन्हने मान्यताओं को ताक पर रख दिया है ...उचित अनुचित की पहचान खो दी है .  महत्त्व पाने की कामना और त्वरित लाभके उद्देश्य से आज औरत ही औरत का शोषण करने लगी है इसलिए  आवश्यक है जागरूकता और संगठित होना .
नारी ब्लॉग वह संगठन है जहाँ हम सब मिलकर अपनी योग्यता को पहचाने .....एक दूसरे को सही  रास्ता दिखाएं...अपने मौलिक अधकारों से रूबरू हों .   परिस्तिथियाँ बदल गयीं हैं
आज नारी को  हाशिये पर नहीं रखा जा सकता ...वह ज़माने गए जब उसकी अपनी कोई आवाज़ नहीं थी ..अपने विचार नहीं थे ...जहाँ उसे बोलने की , अपने विचार व्यक्त करने की स्वंत्रता नहीं थी ..आज वह सशक्त है , आज उसकी अपनी अस्मिता है ...उसकी अपनी आवाज़ है ...एक सोच है ....जो वर्षों के अनुभवों का निचोड़ है ..और आज तो पुरुष भी उसके योगदान को पहचानने लगा है ...मान्यता देता है ..उसकी सोच को इज्ज़त देता है ...उसके विचारों का मान रखता है ...आज वह उसकी बैसाखी है ...जिसके सहारे के बगैर ....वह आगे नहीं बढ़ सकता .....कोई  भी महत्वपूर्ण निर्णय नहीं ले सकता ....
आज वह उस अनुकूलन , उस कंडिशनिंग से मुक्त हो गयी है ....जो उसे बचपन से घुट्टी बनाकर पिलाई जाती थी ...उसीके फलस्वरूप वह एक सहचारिणी , एक मित्र, एक सखा बन गयी है ...केवल एक अनुगामिनी नहीं .  

Friday, November 2, 2012

ताप -




मैंने जलते सूरज को , अपनी अंजुरी में समेटना चाहा
ताकि जग का ताप हर लूं -
ताकि, व्यथित , विक्षिप्त अ:तस के कष्ट, कम कर दूं -
 ताकि धरती की जलन को कुछ और शीतल कर दूं -
ताकि तपते खेतों को झुलसने से बचा लूं ..

लेकिन यह क्या ...!
मैंने तो जीवन का उद्गम ही रोक दिया -
वही ऊष्मा जो जीवनदायी थी -
मैंने उसीका रुख मोड़ दिया ..!!!

खेत भी त्राहि त्राहि कर उठे -
फुनगियों पर रुका अनाज
मुरझाकर झड़ने लगा
विक्षिप्त व्यथित कायाएं
रोग ग्रस्त हो गयीं....

यह मैंने क्या किया !
नहीं समझ पाई कि स्वयं तपकर ही तुम
जग को जीवन देते हो  ---
तपना ही तुम्हारी नियति है

और मेरी ....
धरती बन .....
सांझ को घर लौटने पर
उस ताप पर ....
मरहम बन जाना ......!!!