Saturday, April 1, 2023

हमख्याल

 हमखायाल कौन होता है. वह जिससें हमारी सोच हमारे ख्याल मिलते हैं वह जिससें हम दिल खोलकर बात कर सकते हैं. वह जिससे कोई पर्दादारी नहीं होती. अक्सर मन की परतों में कुछ ऐसी बातें दबी रहती हैं, जिन्हें हमने ज़माने सें छिपाना चाहा और जो अश्मिभूत हों गयी हमारे भीतर ही, फोस्सीलाइज़ हों गयीं. उन बातों को जब सतह पर लाकर किसी सें बांटने का मन हों तो वह हमखायाल बन जाता है. हमख्याल जो चुपचाप हमारे मन की बात सुनता है. जो नहीं रोकता कुछ करने सें, नहीं टोकता कुछ  कहने सें, बस हमारे साथ हमारे ही एहसासों को समझता है बांटता है. हमखायाल कोई भी हों सकता है. कोई काल्पनिक पात्र, या आप खुशनसीब हों तो आपका जीवन साथी, आपकी कोई दोस्त, कोई मित्र या फिर आपके बच्चे . बशर्ते वह आपके बहुत करीब हों. जिनसे आप मन की बात खुलकर कह सके. हमख्याल सिर्फ एक फंतासी नहीं एक जीता जागता इंसान भी हो सकता है.

या फिर वह जो अब कभी लौटकर नहीं आएगा.
मेरे हमखायाल
मैंने मुस्कुराना सीख लिया...

तुम्हें गए महीनो हो गए। जीना किसी कहते हैं, वह भी भूल चुकी हूँ । मेरे दिन रात तुम्हारे साथ चलते। तुम मेरी धुरी थे और मैं तुम्हारा चाँद । बचपन में पढ़ा था की हर ग्रह के अपने चाँद होते हैं, जो उसकी सतत परिक्रमा करते रहते हैं। मेरा दिन भी तुम्ही से शुरू होकर, तुम ही पर थम जाता था। अपने लिए समय..!
कभी ख्याल में भी नही आया। तुम जब यूँ अचानक चले गए,बिना कुछ कहे ,कुछ सुने तो मैं एक वैक्यूम में कैद हो गई। उसकी दीवारें नही थीं। जिस और हाथ बढ़ाती उसी दिशा में बढ़ जाता। चलना चाहती तो फैलता जाता। भीतर घुप्प अंधेरा, कानों में अजीब सी सांय सांय सुनाई देती। किसी की आवाज मुझ तक न पहुँच पाती ।बाहर निकलने के लिए कोई निकास नही।
ऐसे भी कोई जाता है..!
क्यों चले गए यूँ छोड़कर...!
बच्चे खुश रखने की कोशिश करते।खुशी होती भी, पर तुम्हारा ना होना, मिटा देता सारे रंग। बुतरंगी खुशियों से मन बहलाती, मजबूत बने रहना था, बच्चों की नजर में।जब कभी रोता देखते, तो गले लगाकर साथ साथ रोते। लोग समझाते मजबूत बनो। तुम्हें  बच्चों को संभालना है। उनकी ताकत बनना है। अनगिनत बार वही बने मेरा संबल।
वह कहते  रो लो माँ । आँसुओं को बह जाने दो।हमारी चिंता मत करो।  खुलकर रो लो। हल्की हो लो। हमसे उन्हें मत छिपाओ। हम नहीं टूटेंगे , और बाँध हरहराकर टूट जाता।
घर का हर कोना तुम्हारी याद दिलाता। यहाँ सोफे पर ऐसे बैठा करते और मैं ठीक तुम्हारे सामने, तुम्हारे पास बगल में रहती।
सामने वाली मेज़ के एक कोने में, लैपटॉप पर फ्रीसेल खुला रहता, और तुम जब भी थके होते, तो वहीं बैठकर रिलैक्स करते। हर तरफ तो मौजूद थे। तुम गए ही कहाँ थे..!
हर बार लगता, यहीं तो हो , मेरे सामने उसी सोफे पर बैठे मुस्कुरा रहे हो , मेरी हर बात गौर से सुन रहे हो। फिर रोना क्यों..?
बस उसी दिन से  जीवन को देखने का दृष्टिकोण बदल गया ।बात बात पर रोना बंद हो गया।
  शुरुआत हुई, उस सुनहरी किरण से जो काले बादलों के पीछे से झाँककर आश्वस्त करती है, कि बस दुःख अब समाप्त हुआ चाहते हैं। फिर उस किरण का विस्तार फैलता गया, और अंतत: बादल छंट गया, उजली धूप ने डेरा डाला, और आँसू बरसना ही भूल गए।
अब तो सुबह की चाय पर चर्चा होती।  इकतरफा हुई तो क्या,  तुम  तो साथ थे। हाथों से छू नही सकते थे, मन से स्पर्श कर लेते। बस यह विश्वास था कि तुम कहीं नहीं गए। जा ही नही सकते।
हमेशा डैनो में सहेजा, दुनिया से बुरी नजर से दूर। तुम्हारा बस चलता तो परदे में रखते, कि कोई और न देखे हमें। स्वार्थी तो  बहुत थे। एक पल अलग नहीं होने देते। नही जहाँ जाओगी हमारे साथ। अकेला नहीं छोड़ सकता, दुनिया बहुत शातिर है, और तुम निरी बेवकूफ। लोगों की पहचान नहीं तुम्हें। दलीलों का पिटारा था तुम्हारे पास। और मैं भी तो उसी में खुश थी। तुम्हारे बाहों के घेरे में, डैनो में महफूज़।
हाँ , तो मैंने मुस्कुराना सीख लिया है।तुम जो हो पास...!