Friday, April 5, 2024

एक अनूठी फ़िल्म- 'नज़र अंदाज़'.



37° C, तापमान से बचने के लिये,, कमरे के परदे खींचे, A.C. चलाया और ओटीटी  प्लेटफार्म पर कोई फ़िल्म खोजने लगे. इत्तेफ़ाक़ से एक फ़िल्म का ट्रेलर चलने लगा, और हम दोनों माँ बेटा वहीं अटक गये.  जिस फ़िल्म के बारे में कुछ भी पता न हो उसे हम काग दृष्टि से देखना शुरू करते हैं .

पर इस फ़िल्म में बुराई का एक मौका हाथ नहीं लगा.

 वह अद्भुत फ़िल्म थी, 'नज़र अंदाज़'.

यह कहानी है सुधीर भाई की. सुधीर जो जन्माँध है. इसके बावजूद एक खुश दिल , हँसमुख इंसान जो अपनी कमी के बावजूद सदैव आत्म निर्भर रहना चाहता है. बचपन से जिस इंसान ने अनाथ सुधीर को पाला वह मृत्यु से पहले अपनी सारी जायदाद उसके नाम कर गया . उसके पास पैसे की कमी नहीं. बस एक बकेट लिस्ट है उसकी जिसमें उन सारी चीज़ों का शुमार है जो वह मरने से पहले करना चाहता है.

एक दिन इतफ़ाक़ से वह एक पॉकेटमार से टकराता है जो लोगों की मार से बचकर भाग रहा था. और  वह उसे भूखा, बेसहारा देख अपने घर ले आता है .उसी घर में एक नौकरानी भी है, जो  मालिक के अंधेपन का फायदा उठा उस घर में मालकिन बनकर रहती है. वह चंट है पर मन की बुरी नहीं. मालिक का पूरा ख्याल रखती है. सुधीर उन दोनो को लेकर मांडवी घूमने निकल जाता है. मांडवी जहाँ उसका अतीत था, जिससे जुड़े कुछ सपने थे जो अब तक अधूरे थे उन्हें पूरा करना बाक़ी था. छूट चुके पलों को जीना बाक़ी था. 

यह कहानी है उस सफर की.

यह कहानी है उन तीनों में बढ़ती घानिष्ठता की. 

यह कहानी है दुखों  के उन कंकालों की,  जिन्हें सुधीर अपने अंदर भींच  दुनिया से छिपाता रहा और जो इस सफर के दौरान धीरे धीरे उजागर होते गये.

यह कहानी है उन सपनों के पूरे होने की.

ज़िन्दगी के एक खूबसूरत नज़रिये पर नज़र डालती यह फ़िल्म सोच को सकारात्मक बनाना सिखाती है. 

 सुधीर के किरदार में कुमुद मिश्रा ने अभिनय के नये सोपान छू, उसे एक बहुत ही उच्च स्तर पर स्थापित कर दिया है. 

कुमुद मिश्रा फ़िल्म की जान हैं. यह शायद उनके जीवन का अब तक का सबसे चैलेंजिंग रोल रहा होगा. नौकरानी भवानी की भूमिका में दिव्या दत्ता और टपोरी अली की भूमिका में अभिषेक बनर्जी ने भी बहुत ही मंझा हुआ अभिनय किया है. उनकी नोक झोंक भी कहानी का एक सशक्त पहलू है. 

राजेश्वरी सचदेवा सुधीर की प्रेयसी की छोटीसी भूमिका में भी अपना प्रभाव छोड़ जाती हैं.

दुःख इस बात का हुआ की इतनी अच्छी फ़िल्म का कहीं कोई ज़िक्र नहीं सुना. आजकल की मार धाड़ कान फोडू संगीत वाली फिल्मों से हटकर यह शांत लहरों पर वायलिन की बजती धुन सी लगी. मंत्र मुग्ध करती.  जो विपरीत परिस्तिथियों में भी ख़ुशी ख़ुशी जीने की प्रेरणा देती है, ऐसी फिल्मे आज की पीढ़ी तक पहुँचनी चाहिए.

यह फ़िल्म हमें सिखाती है कि हमारा नज़रिया ही किसी भी परिस्थिति को अच्छा या बुरा, बनाता है. 

राजशेखर के गीत और विशाल मिश्रा की धुनें भीतर, दिल की तह तक, हर खाली कोना, हर संध भर, दूर तक साथ चलती हैं. 

एडिटिंग पटकथा निर्देशन हर दृष्टि से एक बेहतरीन फ़िल्म.

आपने नहीं देखी तो अवश्य देखिएगा. आप निराश नहीं होंगें. 

सरस दरबारी

Saturday, April 1, 2023

हमख्याल

 हमखायाल कौन होता है. वह जिससें हमारी सोच हमारे ख्याल मिलते हैं वह जिससें हम दिल खोलकर बात कर सकते हैं. वह जिससे कोई पर्दादारी नहीं होती. अक्सर मन की परतों में कुछ ऐसी बातें दबी रहती हैं, जिन्हें हमने ज़माने सें छिपाना चाहा और जो अश्मिभूत हों गयी हमारे भीतर ही, फोस्सीलाइज़ हों गयीं. उन बातों को जब सतह पर लाकर किसी सें बांटने का मन हों तो वह हमखायाल बन जाता है. हमख्याल जो चुपचाप हमारे मन की बात सुनता है. जो नहीं रोकता कुछ करने सें, नहीं टोकता कुछ  कहने सें, बस हमारे साथ हमारे ही एहसासों को समझता है बांटता है. हमखायाल कोई भी हों सकता है. कोई काल्पनिक पात्र, या आप खुशनसीब हों तो आपका जीवन साथी, आपकी कोई दोस्त, कोई मित्र या फिर आपके बच्चे . बशर्ते वह आपके बहुत करीब हों. जिनसे आप मन की बात खुलकर कह सके. हमख्याल सिर्फ एक फंतासी नहीं एक जीता जागता इंसान भी हो सकता है.

या फिर वह जो अब कभी लौटकर नहीं आएगा.
मेरे हमखायाल
मैंने मुस्कुराना सीख लिया...

तुम्हें गए महीनो हो गए। जीना किसी कहते हैं, वह भी भूल चुकी हूँ । मेरे दिन रात तुम्हारे साथ चलते। तुम मेरी धुरी थे और मैं तुम्हारा चाँद । बचपन में पढ़ा था की हर ग्रह के अपने चाँद होते हैं, जो उसकी सतत परिक्रमा करते रहते हैं। मेरा दिन भी तुम्ही से शुरू होकर, तुम ही पर थम जाता था। अपने लिए समय..!
कभी ख्याल में भी नही आया। तुम जब यूँ अचानक चले गए,बिना कुछ कहे ,कुछ सुने तो मैं एक वैक्यूम में कैद हो गई। उसकी दीवारें नही थीं। जिस और हाथ बढ़ाती उसी दिशा में बढ़ जाता। चलना चाहती तो फैलता जाता। भीतर घुप्प अंधेरा, कानों में अजीब सी सांय सांय सुनाई देती। किसी की आवाज मुझ तक न पहुँच पाती ।बाहर निकलने के लिए कोई निकास नही।
ऐसे भी कोई जाता है..!
क्यों चले गए यूँ छोड़कर...!
बच्चे खुश रखने की कोशिश करते।खुशी होती भी, पर तुम्हारा ना होना, मिटा देता सारे रंग। बुतरंगी खुशियों से मन बहलाती, मजबूत बने रहना था, बच्चों की नजर में।जब कभी रोता देखते, तो गले लगाकर साथ साथ रोते। लोग समझाते मजबूत बनो। तुम्हें  बच्चों को संभालना है। उनकी ताकत बनना है। अनगिनत बार वही बने मेरा संबल।
वह कहते  रो लो माँ । आँसुओं को बह जाने दो।हमारी चिंता मत करो।  खुलकर रो लो। हल्की हो लो। हमसे उन्हें मत छिपाओ। हम नहीं टूटेंगे , और बाँध हरहराकर टूट जाता।
घर का हर कोना तुम्हारी याद दिलाता। यहाँ सोफे पर ऐसे बैठा करते और मैं ठीक तुम्हारे सामने, तुम्हारे पास बगल में रहती।
सामने वाली मेज़ के एक कोने में, लैपटॉप पर फ्रीसेल खुला रहता, और तुम जब भी थके होते, तो वहीं बैठकर रिलैक्स करते। हर तरफ तो मौजूद थे। तुम गए ही कहाँ थे..!
हर बार लगता, यहीं तो हो , मेरे सामने उसी सोफे पर बैठे मुस्कुरा रहे हो , मेरी हर बात गौर से सुन रहे हो। फिर रोना क्यों..?
बस उसी दिन से  जीवन को देखने का दृष्टिकोण बदल गया ।बात बात पर रोना बंद हो गया।
  शुरुआत हुई, उस सुनहरी किरण से जो काले बादलों के पीछे से झाँककर आश्वस्त करती है, कि बस दुःख अब समाप्त हुआ चाहते हैं। फिर उस किरण का विस्तार फैलता गया, और अंतत: बादल छंट गया, उजली धूप ने डेरा डाला, और आँसू बरसना ही भूल गए।
अब तो सुबह की चाय पर चर्चा होती।  इकतरफा हुई तो क्या,  तुम  तो साथ थे। हाथों से छू नही सकते थे, मन से स्पर्श कर लेते। बस यह विश्वास था कि तुम कहीं नहीं गए। जा ही नही सकते।
हमेशा डैनो में सहेजा, दुनिया से बुरी नजर से दूर। तुम्हारा बस चलता तो परदे में रखते, कि कोई और न देखे हमें। स्वार्थी तो  बहुत थे। एक पल अलग नहीं होने देते। नही जहाँ जाओगी हमारे साथ। अकेला नहीं छोड़ सकता, दुनिया बहुत शातिर है, और तुम निरी बेवकूफ। लोगों की पहचान नहीं तुम्हें। दलीलों का पिटारा था तुम्हारे पास। और मैं भी तो उसी में खुश थी। तुम्हारे बाहों के घेरे में, डैनो में महफूज़।
हाँ , तो मैंने मुस्कुराना सीख लिया है।तुम जो हो पास...!

Sunday, January 1, 2023

मंगलामुखी – एक उजास ...!


मंगलामुखी – एक उजास ...!


डॉ॰लता अग्रवाल का उपन्यास हाथों में है। किन्नरों पर आधारित इस उपन्यास की प्रस्तावना पढ़ी, जिसमें पायल फाउंडेशन की डायरेक्टर, किन्नर गुरु, पायल सिंह ने लिखा है, 

हमें न्याय दिलाता उपन्यास...!

और उपन्यास पढ़ते हुए महसूस हुआ, कितना सही लिखा है उन्होंने। 

किन्नर हमेशा से ही समाज के लिए एक रहस्य रहे हैं। एक भय मिश्रित जिज्ञासा, इनके प्रति, सदैव बनी रही है। यह उपन्यास उन सारी जिज्ञासाओं का निवारण करता चलता है। 

मंगलामुखी किन्नरों के जीवन पर लिखा केवल एक उपन्यास नहीं है...!

मंगलामुखी दस्तावेज़ है, उनके सुख दुःख का, छोटी छोटी खुशियों का। 

मंगलामुखी खुलासा है, अपनों के दिए ज़ख्मों का, तिरस्कार का, गहन विषाद का…!  

मंगलामुखी किन्नरों की व्यथा गाथा है, उनका जीवन है, पर्त दर पर्त खुलता हुआ।

मंगलामुखी किन्नरों के जीवन की वह तस्वीर है, जो समाज की नज़रों से ओझल रही है।

यह तस्वीर तभी साकार होती है, जब डॉ लता अग्रवाल जैसा कोई हमदर्द उन्हें करीब से देखता, उस दर्द को महसूसता और बाँटता है। उनके दुःख से विचलित हो, उनकी ख़ुशी में शरीक होता है। 

यह कहानी शकुन की है।  

अनब्याही शकुन, जिसे मिला, प्रेम में धोखा और एक अनचाहा गर्भ। अपने परिवार को शर्मिंदगी से बचाने के लिए तालाब में कूद पड़ी थी, जहां पूजा के लिए लोगों की भीड़ थी। पूर्वाग्रहों से ग्रस्त, स्त्री पुरुषों में से कोई उसकी जान बचाने नहीं आया, तब एक किन्नर ने तालाब में कूदकर उसकी जान बचाई। 

नपुंसक कौन...? 

यह प्रश्न उपन्यास में कई बार उठता है। किन्नर तो बेचारे शरीर से,नियति से मजबूर हैं, इसीलिए नपुंसक कहालते हैं, पर आम आदमी की सोच, उसके आचरण और स्वार्थ ने उसे नपुंसक बना दिया है। 

अपनों द्वारा ठुकराई हुई शकुन, बच्चे को जन्म देना चाहती थी। किसीने गर्भ सींचकर उसे ठुकरा दिया, तो उसमें बच्चे का क्या दोष....!

 उसका जीने का अधिकार क्यों छीना जाए?

और शकुन बच्चे को जन्म देने का निर्णय कर लेती है। और वही किन्नर समाज, ढाल बनकर उसके पीछे खड़ा हो जाता है। उसी की आँखों से हम उनकी दुनिया देखते हैं, समझते हैं। शकुन ही वह सेतु है, जो किन्नरों के जीवन के अनजाने पहलु, पाठक तक पहुँचाता है।

यह कहानी है शिल्पा गुरु की।  

शिल्पा गुरु, किन्नरों की मुखिया, जो उसकी जान बचाकर, किन्नरों के डेरे में, आसरा देती हैं। शिल्पा गुरु जिसे सब बाप का दर्जा देते थे, शकुन के लिए साक्षात् माँ बनकर आयी। नाल का रिश्ता न सही, दर्द का सम्बन्ध तो बन ही गया था। उसकी ममता के आँचल में उसे और उसकी बेटी अनु को परिवार का संरक्षण और असीम स्नेह मिला। 

यह कहानी है मणि शर्मा उर्फ महेंद्री की। 

कक्षा की सबसे होनहार छात्रा। छोटी सी मणि को एक दिन उसके स्कूल की सहेलियाँ ‘सूसू’ करते देख लेती हैं। और मणि की ज़िन्दगी बदल जाती है। जो राज़ अब तक समाज से छिपा था, उजागर हो जाता है, और समाज में उसका बहिष्कार हो जाता है। किन्नरों की टोली आकर रोती कलपती मणि को छीन कर ले जाते हैं। उसके सारे सपने एक झटके में बिखरकर छितरा जाते हैं और प्रतिभाशाली मणि, महेंद्री बन जाती है। महेंद्री जो शिल्पा गुरु के बाद, उस गुट की मुखिया बनती है। 

शिल्पा गुरु के बाद वह स्नेह, वह अपनापन, शकुन और उसकी बच्ची अनु को महेंद्री से मिलता है, जो अपनी वेश भूषा बदल, कुरता पजामा पहन, बन जाती है अनु का पिता महेंद्र और अंत तक एक पिता होने का दायित्व निभाती है। 

मनको छू लेने वाला उपन्यास। 

गज़ब का शब्द विन्यास...! 

किन्नरों की बोली, जिसमें बात बात में गाली गलौज है, उनके हावभाव, ताली बजा बजाकर अपनी ख़ुशी या रोष जताना, संवादों के बीच लेखकीय प्रवेश, हमें उनके जीवन के हर पक्ष से मिलाता चलता है। उनकी पीडाओं से और करीब से जोड़ता है। वह कहती हैं, “समाज से मिली उपेक्षा और अपनों के दिए घावों ने जो कड़वाहट, जो पीड़ा उनके अन्दर भर दी थी, उन्हीँ घावों से रिसता मवाद, उनकी बोली और व्यवहार में दिखाई देता।” 

किन्नरों की भाषा, उनके हावभाव का हूबहू वर्णन बहुत ही सूक्ष्म अवलोकन और श्रम से संभव है, जो इस उपन्यास को विशेष बनाता है। उनके अंतर्भावों को कितनी शिद्दत से महसूस किया है लता जी ने। 

हमारे पूर्वाग्रहों के रहते, समाज द्वारा, जाने अनजाने, उनके प्रति कितना अन्याय, कितना अनिष्ट होता है, उसका एहसास इस उपन्यास को पढ़कर देर तक सालता रहा। वाकई, क्या भूल है उनकी, जो इतना तिरस्कृत जीवन जीने को मजबूर हैं, एक गुमनाम जीवन और अनजान मौत पाने को अभिशप्त। रात के सन्नाटे में चप्पलों से पीटकर जिनकी अंत्येष्टि होती है, ताकि पुन: ऐसा तिरस्कृत जन्म न मिले। 

पर उपन्यास का अंत संभावनाओं का उजास लेकर आता है। और इनके लिए एक बेहतर जीवन का विकल्प दिखाई देता है। उपन्यास का यह सकारात्मक अंत आश्वस्त करता है, कि भोर होने को है। 

डॉ लता अग्रवाल जी को इस अनुपम उपन्यास के लिए ढेरों बधाइयाँ और भविष्य के लिए शुभकामनाएँ। उनकी कलम यूँही निरंतर चलती रहे ।  


सरस दरबारी 

      



Saturday, December 17, 2022

मॉर्निंग वॉक – बाल हठ


मैया मैं तो चाँद खिलौना लैहौं । अब बताइये मैया चाँद कहाँ से लाकर दे। लेकिन नन्हें कृष्ण ने तो ज़िद ठान ली। यानि कि बालहठ की समस्या, द्वापर युग अर्थात 864,000 वर्ष पहले से चली आ रही है ।
बाल कृष्ण यहीं पर नहीं रुके। उसके साथ ‘अन्यथा’ भी जोड़ दिया। अगर हमारा हठ पूरा न किया तो
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं॥
सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं।
ह्वै हौं पूत नंद बाबा को , तेरौ सुत न कहैहौं॥
आगैं आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहि न जनैहौं।
यशोधा मैया भी समझदार थीं, उन्होने बहला दिया, डिसट्रैक्ट कर दिया ,
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहनिया दैहौं
और कन्हैया को सौदा पसंद आ गया...!
तेरी सौ, मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं।
तो इस तरह, बाल कृष्ण तो दुलहनियाँ के नाम पर मान गए। उन्होने अपना बाल हठ छोड़ दिया।
‘बालहठ’, अनादीकाल से चली आ रही समस्या है, और समय और ज़रूरत के हिसाब से इसके निवारण के तरीके भी बदलते रहे हैं।
अभिभाबवाक अपने बच्चे को खुश देखना चाहते  है। और उसके लिए अपनी
क्षमता नुसार, हर संभव प्रयास करते हैं। दोनों, पैसे कमाने में जुट जाते हैं।
 जिससे पैसे तो आते हैं, लेकिन और बहुत कुछ खो जाता है।
दरअसल वर्तमान पीढ़ी के बच्चों ने दुनिया देखी है। आखिर वर्ल्ड वाइड वेब का ज़माना है, बच्चे से लेकर बूढ़े तक सब इसी वेब में उलझे हुए हैं। और मज़े की बात तो यह है, कि इसमें कोई छटपटा भी नहीं रहा(जैसे अमूमन शिकार मकड़ी के जाल में तड़पता है) । सब मस्ती में झूला झूल
 रहे हैं।
हाँ तो आधुनिक बच्चे, चूँकि अधिक एक्स्पोसेड़ हैं, उनमें जागरूकता या कहें
अंतर्जाल पर उपलब्ध ज्ञान भी अधिक है। जो बड़ों की निगरानी के अभाव में
 उन्हें अनचाहे रास्तों पर धकेल सकते हैं। कच्ची उम्र में जब उन्हें मार्गदर्शन
की ज़रूरत होती हैतब उन्हें नौकरों और आयाओं के सुपुर्द कर दिया जाता है।
जिस वक़्त उन्हें माता पिता के प्यार और संरक्षण की आवश्यकता होती है, तब उन्हें कीमती विडियो गेम्स, फोन के लेटैस्ट मॉडेल्स देकर उस कमी को पूरा किया जाता है। इतनी आसानी से मिली चीजों का कोई महत्व नहीं रह जाता।
 धीरे धीरे खीज और ऊब अपनी जड़ें जमा लेती है। और फिर बात बात में
रूठना उनकी आदत बन जाती है। क्या चाहते हैं, यह वे स्वयं नहीं समझ
पाते,और अंतत: उसकी तलाश में भटक कर ड्रग्स, नशे की ओर उन्मुख होते हैंऔर गलत रास्तों पर चल पड़ते हैं। गलत सोच पालने लगते हैं। बरगलानेवालों इसी मौके की तलाश में रहते हैं। मौके बेमौके दूसरे अभिभावकों से आपकी तुलना कर आपको नीचा दिखाने में वे तनिक नहीं हिचकिचाते। यह सौदा अभिभावकों को बहुत महंगा पड़ता है। बच्चों का बड़ों के प्रति सम्मान, उनकी संवेदनशीलता, उनका बचपन ...! इस सौदे में, यह सब खो जाता है।
इसमें बच्चों का कितना दोष है ? क्या नौकर आयाएँ उसे वह संस्कार, वह
स्नेह वह अपनापन दे सकते हैं, जिनकी उसे उस पड़ाव पर सबसे अधिक
ज़रूरत है ? बच्चा उस जज़्बे को कैसे समझ सकेगा जिससे वह स्वयं वंचित
रहा ?
क्या पैसों और स्टेटस की एवज में यह कीमत कुछ अधिक नहीं?
 
सरस दरबारी   
 
 
 
 
 
 
 
 

 


Tuesday, July 27, 2021

बाजारवाद

 



यह कोई ४५
, ४६, वर्ष पुराना किस्सा है. हमारी माँ के बाल बहुत झड रहे थे. उन्हें किसी ने सलाह  दी, कि फलां आयुर्वेदिक तेल गिरते केशों के लिए बहुत लाभप्रद है. माँ  ने वह तेल मँगवा लिया. और वाकई, चमत्कारिक असर हुआ. उनके बाल न सिर्फ गिरने बंद हो गए, बल्कि ४, ५ महीने में उनके सफ़ेद  बाल काले होने लगे और लम्बे भी.  भई वह तेल तो हिट हो गया. मम्मी की तो लाटरी लग गयी. फिर उन्होंने जीवनभर वही तेल इस्तेमाल किया.

 हम इस  वाकये को लगभग भूल चुके थे. कोई १५  वर्ष पहले, इनके एक मित्र की माता ने हमसे  वही शिकायत की. झट वह तेल याद आ गया, और हमने उन्हें उसका  नाम बता दिया. हालांकि वह तेल महंगा था . छोटी सी ५० एम् एल  की शीशी १०० रूपये की थी. उसपर कुछ ताकीदें लिखी थीं.  तेल  लगाते समय ध्यान रहे, कि केशों में नमी हो. कुछ बूँदें हथेली पर लेकर पोरों से हलके हलके चाँद पर मलना है. एक शीशी काफी दिन चल जाती थी. यही हिदायत हमने उन्हें दे दी.

उन्हें भी बहुत आराम हुआ. जब मिलें हमसे कहें, "बिटिया हमार तो जिन्दगी संवर गयी. क्या बढ़िया तेल बताये हो. इसे लगाने से बाल तो गिरने बंद हो ही गए, साथ में हमारा सर दर्द भी गायब हो गया."

हम खुश हो गए, सुनकर. फिर कुछ वर्षों बाद, हमारे साथ भी वही हुआ. बाल बुरी तरह झड़ने लगे. पर अब तेल मिले कहाँ. कोरोना में तो लॉक डाउन के चलते, घर से निकलना संभव न था.  दुकानें भी लगभग सभी बंद थीं. अब क्या करें. फिर सोचा, टेली मार्केटिंग साइट्स पर देखें . ढूँढना शुरू किया. और आखिरकार हमें वह तेल मिल ही गया. किसी नामचीन कंपनी के प्रोडक्ट्स में लिस्टेड था. खैर हमें उससे क्या करना था. तेल मिल गया, बस हमारी ख़ुशी का ठिकाना न था. तिगुने दाम पर, झट से आर्डर कर दिया. ४, ५ दिन में वह हमारे हाथों में था.  बहुत खुश...!

जब इंस्ट्रक्शन पढने शुरू किये, तो यह क्या. उन्होंने एक ढक्कन नुमा कंघा दिया था, जो उस शीशी के मुहाने पर कसकर, उसी से तेल लगाना था. कंघे में छेद थे, हम चौंके. यह वही तेल है जिसपर लिखा रहता था, हथेली पर कुछ बूँदें लेकर , हलके हलके गीली जड़ों पर मलिए? यहाँ तो शीशी  उड़ेलने की बात हो रही थी...!

खैर हमने तो वही किया जो हमें पता था. पर इस पूरे वाकये से मन में एक विचार कौंधा.  उस तेल के विषय में बहुत कम लोग जानते होंगें. उस प्रसिद्द कंपनी को भी उसकी गुणवत्ता का अंदाज़ हो गया होगा.  उन्होंने सौदा किया होगा. हम आपका पेटेंट ले लेते हैं. नाम वही पुराना रहेगा, पर मार्केटिंग हमारी होगी. भागते भूत की लंगोटी भली. उस तेल के उत्पादक भी तैयार हो गए होंगे, और एक नयी पैकिंग, नयी हिदायतों के साथ वह तेल बाज़ार में उतार दिया गया. वह एक बहुत हो स्ट्रोंग तेल रहा होगा तभी तो कुछ बूँदें, वह भी गीले सर में ही लगाने की हिदायत दी गयी थी. पूरी शीशी का बालों पर क्या असर होगा, इसकी चिंता करना उस कंपनी ने ज़रूरी नही समझा.

बेचनेवालों को केवल अपना उत्पाद बेचने से मतलब है. उससे लोगों को फायदा हो या नुकसान, उन्हें इससे क्या सरोकार ..! जितना अधिक तेल का प्रयोग, उतनी अधिक बिक्री...! बस सारे नियम पहुँच गए ताक पर.

उत्पादकों की हिदायतें दरकिनार कर दी गयीं...!,

और वह तेल लॉन्च हो गया...!

 

सरस दरबारी

 

Thursday, June 10, 2021

दृष्टि, ईश्वर की सबसे अनमोल देन...!



कुछ दिन पहले एक फिल्म देखी थी। दृष्टिहीन बेटी, ब्रैल में कुछ पढ़ रही है। तभी माँ बेटी के कमरे में प्रवेश करती है, और उसे पढ़ता देख लौटने लगती है। बत्ती जली छोड़कर जा ही रही थी, कि तभी, रुककर बेटी को देख, एक नि:श्वास छोड़ बत्ती बुझा देती है। रौंगटे खड़े हो गए थे उस दृश्य में। बिना किसी संवाद के कितनी सूक्ष्मता से उस दृश्य का मर्म दर्शकों तक पहुँच गया था।

हमें अपने घर का अंदाज़ रहता है, क्या चीज़ कहाँ रखी है, बखूबी जानते हैं, पर बावजूद इसके घुप्प अंधेरे में टटोलकर चलते हैं। कितना आसान होता है, चीज़ें खोज लेना, रुपए गिन लेना, सड़क पार कर लेना, सही नंबर की बस, या ट्रेन पकड़कर गंतव्य तक पहुँचना। ईश्वर ने हमें दृष्टि दी हैं। इसलिए यह सब संभव है। ईश्वर न करे, कभी किसी दिन अचानक हम उठें और हमारी दृष्टि हमसे छिन जाए, तो क्या होगा...! कैसे जियेंगे हम...!

क्या कभी हम ईश्वर की दी हुई नेमतों के लिए उसे धन्यवाद कहते हैं। हमारे पास शिकायतों की एक लंबी फेहरिस्त सदा तैयार रहती है। हमें यह नहीं मिला, हम यह नहीं बन सके, हमने ईश्वर का क्या बिगड़ा, वह इतना निष्ठुर क्यों है, उसे हमसे क्या दुश्मनी है, इत्यादि इत्यादि।

क्या कभी किसी दिव्याङ्ग को देखकर मन में यह भाव आया?

 हे प्रभु कितने कष्ट में होगा यह व्यक्ति, इसके कष्ट को दूर करो, या कि, ईश्वर तुम बहुत दयालु हो, तुमने यह अनमोल शरीर दिया है, अपनी कृपा हमपर बनाए रखना। कभी आगे बढ़कर किसी नेत्रहीन को सहारा दे, सड़क पार करने में मदत कीजिये, या सामान खरीदते हुए कोई दुकानदार, बेजा फायदा न उठा ले, इसलिए बस उसके बगल में खड़े हो जायेँ…! करके  देखिये, कितना सुकून मिलता है...! यह सच है, सभी अपने अपने युद्धों में लिप्त हैं, चाहते हुए भी हम सहायता नही कर पाते। पर संवेदनशील तो हो सकते हैं। चलते फिरते इनकी छोटी मोटी सहायता तो कर ही सकते हैं।

किसी अंग का भंग होना बहुत कष्टदायक होता है, जिसमें दृष्टिहीन होना हमें सबसे अधिक कष्टदायक लगता है। कितनी घुटनभरी अंधेरी ज़िंदगी होती है इनकी। जीवन के हर सौंदर्य से वंचित ...!

दृष्टि ईश्वर की सबसे अनमोल देन है। जीते जी न सही हम मृत्युप्रान्त ही उनके लिए कुछ करने का प्रण कर लें। ईश्वर को धन्यवाद कहने का एक नायाब तरीका है। करके देखिये...!

 

सरस दरबारी    

 


Tuesday, June 1, 2021

'स्वर्ग का अंतिम उतार',





प्रसिद्ध कथाकार लक्ष्मी शर्मा जी का एक बेहतरीन उपन्यास, जो अंतिम पन्ने पर पहुँचकर ही छूटता है। 

एक गरीब किसान का बेटा छिगनजिसे  दो पैसे कमाने की खातिर अपना गाँव अपना परिवार छोड़ इंदौर में एक सेठ के घर वॉचमैन की तरह काम करता है। घर के लोग खुश हैं कि उसकी शहर में नौकरी लग गई है, पर छिगन का दिल ही जानता है, चिलचिलाती धूप में घंटो खड़े रहना कितना दुष्कर है। बँगले के फूल क्यारी देख स्मृतियों में रह रहकर घर पहुँच जाता है।L

सेठ की उतरन पहन गाँव में अपना रुतबा बनाये हुए है। कहानी वहाँ से शुरू होती है जब एक दिन उसके मालिक कहते हैं कि उसे अपने साथ चार धाम की यात्रा पर ले जा रहे हैं। छिगन की खुशी का ठिकाना नही रहता। यह वह सपना था जो उसकी दादी देखते देखते दुनिया से कूच कर गयीं। उसकी माता पिता की आँखों में बरसों से यह सपना पल रहा था।  

" छिगन बचपन से देख रहा है बई को बद्रीनाथ के नाम से पाई पाई जोड़ते। हर साल घर के खर्चों से कतर ब्योन्त करती बई कभी पीहर जाना स्थगित करती थी तो कभी घर पर नया छप्पर डलवाना। कई बार तो घर के बच्चे भी मन मारकर मेले बाजार से मुँह जुठाये बिना लौट आते थे, लेकिन किसान और मौसम का सदा का बैर। कभी ओले तो कभी पाला, कभी सूखा तो कभी बरसात, कुछ नही तो कभी तेला लग गया, कभी टिड्डी फिर गईं और ये सब हर बार गरीब की कूलड़ी में पल रहे बचत- शिशु का भोग लेकर ही संतुष्ट होते थे"

ऐसे में चार धाम की यात्रा पर जाने के विचार से छिगन बौरा गया था। 

कितने चाव से उसने मालिक के पूरे परिवार की तस्वीर कॉपी के कागज़ पर बनाई थी। साहब, मेमसाहब, पुरु बाबा, जिया बेबीऔर  थोड़ी दूरी पर अपनी और उनका कुत्ता गूगल जो एक जर्मन शेपर्ड था।

फिर ऐसा क्या हुआ जो उसने उस कागज़ पर बनी सारी तस्वीरें लाल पेन से कोंच डालीं।

धर्मपरायण और कर्तव्यनिष्ठ छिगन की दिल को छू लेने वाली कथा। जिसमें बड़ी ही subtly धर्म और अधर्म के बीच की पारदर्शी रेखा को कथाकार ने उद्घाटित किया है। 

यह उपन्यास कई अहम मुद्दों पर एक पैनी दृष्टि रखकर चलता है...

जैसा गाँवों में साधु संतों द्वारा संचालित कंठी जैसी कुरीतियाँ..!

घर की स्त्रियों के साथ होते कुकृत्य..!

जैसे पानी का महत्व..! 

जैसे गरीबी और भुखमरी किसी तेंदुए से कम नही जो निरीह लोगों को चीर फाड़कर अपना ग्रास बनाती हैं...!

जैसे एक इंसान की मूँछों की ऐंठ उसकी माली हालत से आँकी जाती है...! जिसकी ऐंठसिर्फ एक दिखावा है, आगंतुकों पर रौब झाड़ने के लिए...!

 गरीब कंचन पर  मेमसाहब की उमड़ती दया का भेद जानकर  छिगन पर जो असर होता है वह उपन्यास को एक नया आयाम देता है।

बड़ी सहजता से मानवीय मूल्यों को उद्घाटित करता एक मार्मिक उपन्यास..!

बिंबों के प्रयोग पर तो लक्ष्मी जी को महारथ हासिल है। 

"रात की बारिश और बर्फ रात को ही विदा ले गई है। जानकू चट्टी के पर्वतों पर बिछी बर्फ से गलबहियाँ किये उतरती धूप कुछ ज़्यादा ही साफ और उजली है। उसने ज़रा सा धूपिया पीला उबटन पास बहती जमना की श्यामल वर्णा देह पर भी मल दिया है, जिससे वह निखरी निखरी हो गई है।"

अंत तक बाँधे रखने वाला उपन्यास..!

बधाई लक्ष्मी शर्मा जी..!