37° C, तापमान से बचने के लिये,, कमरे के परदे खींचे, A.C. चलाया और ओटीटी प्लेटफार्म पर कोई फ़िल्म खोजने लगे. इत्तेफ़ाक़ से एक फ़िल्म का ट्रेलर चलने लगा, और हम दोनों माँ बेटा वहीं अटक गये. जिस फ़िल्म के बारे में कुछ भी पता न हो उसे हम काग दृष्टि से देखना शुरू करते हैं .
पर इस फ़िल्म में बुराई का एक मौका हाथ नहीं लगा.
वह अद्भुत फ़िल्म थी, 'नज़र अंदाज़'.
यह कहानी है सुधीर भाई की. सुधीर जो जन्माँध है. इसके बावजूद एक खुश दिल , हँसमुख इंसान जो अपनी कमी के बावजूद सदैव आत्म निर्भर रहना चाहता है. बचपन से जिस इंसान ने अनाथ सुधीर को पाला वह मृत्यु से पहले अपनी सारी जायदाद उसके नाम कर गया . उसके पास पैसे की कमी नहीं. बस एक बकेट लिस्ट है उसकी जिसमें उन सारी चीज़ों का शुमार है जो वह मरने से पहले करना चाहता है.
एक दिन इतफ़ाक़ से वह एक पॉकेटमार से टकराता है जो लोगों की मार से बचकर भाग रहा था. और वह उसे भूखा, बेसहारा देख अपने घर ले आता है .उसी घर में एक नौकरानी भी है, जो मालिक के अंधेपन का फायदा उठा उस घर में मालकिन बनकर रहती है. वह चंट है पर मन की बुरी नहीं. मालिक का पूरा ख्याल रखती है. सुधीर उन दोनो को लेकर मांडवी घूमने निकल जाता है. मांडवी जहाँ उसका अतीत था, जिससे जुड़े कुछ सपने थे जो अब तक अधूरे थे उन्हें पूरा करना बाक़ी था. छूट चुके पलों को जीना बाक़ी था.
यह कहानी है उस सफर की.
यह कहानी है उन तीनों में बढ़ती घानिष्ठता की.
यह कहानी है दुखों के उन कंकालों की, जिन्हें सुधीर अपने अंदर भींच दुनिया से छिपाता रहा और जो इस सफर के दौरान धीरे धीरे उजागर होते गये.
यह कहानी है उन सपनों के पूरे होने की.
ज़िन्दगी के एक खूबसूरत नज़रिये पर नज़र डालती यह फ़िल्म सोच को सकारात्मक बनाना सिखाती है.
सुधीर के किरदार में कुमुद मिश्रा ने अभिनय के नये सोपान छू, उसे एक बहुत ही उच्च स्तर पर स्थापित कर दिया है.
कुमुद मिश्रा फ़िल्म की जान हैं. यह शायद उनके जीवन का अब तक का सबसे चैलेंजिंग रोल रहा होगा. नौकरानी भवानी की भूमिका में दिव्या दत्ता और टपोरी अली की भूमिका में अभिषेक बनर्जी ने भी बहुत ही मंझा हुआ अभिनय किया है. उनकी नोक झोंक भी कहानी का एक सशक्त पहलू है.
राजेश्वरी सचदेवा सुधीर की प्रेयसी की छोटीसी भूमिका में भी अपना प्रभाव छोड़ जाती हैं.
दुःख इस बात का हुआ की इतनी अच्छी फ़िल्म का कहीं कोई ज़िक्र नहीं सुना. आजकल की मार धाड़ कान फोडू संगीत वाली फिल्मों से हटकर यह शांत लहरों पर वायलिन की बजती धुन सी लगी. मंत्र मुग्ध करती. जो विपरीत परिस्तिथियों में भी ख़ुशी ख़ुशी जीने की प्रेरणा देती है, ऐसी फिल्मे आज की पीढ़ी तक पहुँचनी चाहिए.
यह फ़िल्म हमें सिखाती है कि हमारा नज़रिया ही किसी भी परिस्थिति को अच्छा या बुरा, बनाता है.
राजशेखर के गीत और विशाल मिश्रा की धुनें भीतर, दिल की तह तक, हर खाली कोना, हर संध भर, दूर तक साथ चलती हैं.
एडिटिंग पटकथा निर्देशन हर दृष्टि से एक बेहतरीन फ़िल्म.
आपने नहीं देखी तो अवश्य देखिएगा. आप निराश नहीं होंगें.
सरस दरबारी