कुछ दिन पहले
एक फिल्म देखी थी। दृष्टिहीन बेटी, ब्रैल में कुछ
पढ़ रही है। तभी माँ बेटी के कमरे में प्रवेश करती है, और उसे पढ़ता देख लौटने लगती है। बत्ती जली छोड़कर जा ही रही थी, कि तभी, रुककर बेटी को देख, एक नि:श्वास छोड़ बत्ती बुझा देती है। रौंगटे खड़े हो गए थे उस दृश्य में। बिना
किसी संवाद के कितनी सूक्ष्मता से उस दृश्य का मर्म दर्शकों तक पहुँच गया था।
हमें अपने घर
का अंदाज़ रहता है, क्या चीज़ कहाँ रखी है, बखूबी जानते हैं, पर बावजूद इसके
घुप्प अंधेरे में टटोलकर चलते हैं। कितना आसान होता है, चीज़ें खोज लेना, रुपए गिन लेना, सड़क पार कर लेना, सही नंबर की बस, या ट्रेन पकड़कर गंतव्य तक पहुँचना। ईश्वर ने हमें दृष्टि दी हैं। इसलिए यह सब
संभव है। ईश्वर न करे, कभी किसी दिन अचानक हम उठें और हमारी दृष्टि हमसे
छिन जाए, तो क्या होगा...! कैसे जियेंगे हम...!
क्या कभी हम ईश्वर
की दी हुई नेमतों के लिए उसे धन्यवाद कहते हैं। हमारे पास शिकायतों की एक लंबी फेहरिस्त
सदा तैयार रहती है। हमें यह नहीं मिला, हम यह नहीं बन
सके, हमने ईश्वर का क्या बिगड़ा, वह इतना निष्ठुर क्यों है, उसे हमसे क्या
दुश्मनी है, इत्यादि इत्यादि।
क्या कभी किसी
दिव्याङ्ग को देखकर मन में यह भाव आया?
हे प्रभु कितने कष्ट में होगा यह व्यक्ति, इसके कष्ट को दूर करो, या कि, ईश्वर तुम बहुत दयालु हो, तुमने यह अनमोल
शरीर दिया है, अपनी कृपा हमपर बनाए रखना। कभी आगे बढ़कर किसी
नेत्रहीन को सहारा दे, सड़क पार करने में मदत कीजिये, या सामान खरीदते हुए कोई दुकानदार, बेजा फायदा न उठा ले, इसलिए बस उसके
बगल में खड़े हो जायेँ…! करके
देखिये, कितना सुकून मिलता है...! यह सच है, सभी अपने अपने युद्धों में लिप्त हैं, चाहते हुए भी हम सहायता नही कर पाते। पर संवेदनशील तो हो सकते हैं। चलते फिरते
इनकी छोटी मोटी सहायता तो कर ही सकते हैं।
किसी अंग का भंग
होना बहुत कष्टदायक होता है, जिसमें दृष्टिहीन
होना हमें सबसे अधिक कष्टदायक लगता है। कितनी घुटनभरी अंधेरी ज़िंदगी होती है इनकी।
जीवन के हर सौंदर्य से वंचित ...!
दृष्टि ईश्वर
की सबसे अनमोल देन है। जीते जी न सही हम मृत्युप्रान्त ही उनके लिए कुछ करने का प्रण
कर लें। ईश्वर को धन्यवाद कहने का एक नायाब तरीका है। करके देखिये...!
सरस दरबारी
"दृष्टि ईश्वर की सबसे अनमोल देन है। जीते जी न सही हम मृत्युप्रान्त ही उनके लिए कुछ करने का प्रण कर लें।"
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर संदेश,सादर
सादर आभार कामिनी जी..😊
ReplyDeleteसादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार (16-07-2021) को "चारु चंद्र की चंचल किरणें" (चर्चा अंक- 4127) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद सहित।
"मीना भारद्वाज"
आपका सादर आभार आद मीना जी ..
Deleteआपका सादर आभार आद मीना जी
Deleteहृदयस्पर्शी लेख।
ReplyDeleteसभी अपने अपने युद्धों में लिप्त हैं सच कहा आपने।
सादर
बहुत बहुत धन्यवाद अनीता जी
Deleteप्रेरक संदेश ।
ReplyDeleteशुक्रिया संगीता जी
Deleteजी प्रेरणा दायक रचना । बहुत बधाई ।
ReplyDeleteसादर आभार आपका
Deleteप्रेरक संदेश
ReplyDeleteप्रभावी आलेख
धन्यवाद ज्योति जी
Deleteप्रेरणादायक लेख।
ReplyDeleteधन्यवाद अनुराधा जी
Deleteजी सही है हम कई बार उन चीजों के लिए जिनकी चाह हमें होती है उन चीजों को भूल जाते हैं जो हमें ऐसे ही प्राप्त हो गई है। यह सोचे बिना कि जो इनसे भी वंचित है वह अपना जीवन कैसे व्यतीत करते होंगे। सुन्दर एवं प्रेरक लेख।
ReplyDeleteसादर आभार विकास जी
Deleteबहुत ही सुंदर संदेश
ReplyDeleteसादर आभार आपका
Deleteआपका सादर आभार
ReplyDeletebada hi sunder sandesh diya hai aapne,
ReplyDeleteZee Talwara
Zee Talwara
Zee Talwara
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