प्रसिद्ध कथाकार लक्ष्मी शर्मा जी का एक बेहतरीन उपन्यास, जो अंतिम पन्ने पर पहुँचकर ही छूटता है।
एक गरीब किसान का बेटा छिगन, जिसे दो पैसे कमाने की खातिर अपना गाँव अपना परिवार छोड़ इंदौर में एक सेठ के घर वॉचमैन की तरह काम करता है। घर के लोग खुश हैं कि उसकी शहर में नौकरी लग गई है, पर छिगन का दिल ही जानता है, चिलचिलाती धूप में घंटो खड़े रहना कितना दुष्कर है। बँगले के फूल क्यारी देख स्मृतियों में रह रहकर घर पहुँच जाता है।L
सेठ की उतरन पहन गाँव में अपना रुतबा बनाये हुए है। कहानी वहाँ से शुरू होती है जब एक दिन उसके मालिक कहते हैं कि उसे अपने साथ चार धाम की यात्रा पर ले जा रहे हैं। छिगन की खुशी का ठिकाना नही रहता। यह वह सपना था जो उसकी दादी देखते देखते दुनिया से कूच कर गयीं। उसकी माता पिता की आँखों में बरसों से यह सपना पल रहा था।
" छिगन बचपन से देख रहा है बई को बद्रीनाथ के नाम से पाई पाई जोड़ते। हर साल घर के खर्चों से कतर ब्योन्त करती बई कभी पीहर जाना स्थगित करती थी तो कभी घर पर नया छप्पर डलवाना। कई बार तो घर के बच्चे भी मन मारकर मेले बाजार से मुँह जुठाये बिना लौट आते थे, लेकिन किसान और मौसम का सदा का बैर। कभी ओले तो कभी पाला, कभी सूखा तो कभी बरसात, कुछ नही तो कभी तेला लग गया, कभी टिड्डी फिर गईं और ये सब हर बार गरीब की कूलड़ी में पल रहे बचत- शिशु का भोग लेकर ही संतुष्ट होते थे"
ऐसे में चार धाम की यात्रा पर जाने के विचार से छिगन बौरा गया था।
कितने चाव से उसने मालिक के पूरे परिवार की तस्वीर कॉपी के कागज़ पर बनाई थी। साहब, मेमसाहब, पुरु बाबा, जिया बेबी, और थोड़ी दूरी पर अपनी और उनका कुत्ता गूगल जो एक जर्मन शेपर्ड था।
फिर ऐसा क्या हुआ जो उसने उस कागज़ पर बनी सारी तस्वीरें लाल पेन से कोंच डालीं।
धर्मपरायण और कर्तव्यनिष्ठ छिगन की दिल को छू लेने वाली कथा। जिसमें बड़ी ही subtly धर्म और अधर्म के बीच की पारदर्शी रेखा को कथाकार ने उद्घाटित किया है।
यह उपन्यास कई अहम मुद्दों पर एक पैनी दृष्टि रखकर चलता है...
जैसा गाँवों में साधु संतों द्वारा संचालित कंठी जैसी कुरीतियाँ..!
घर की स्त्रियों के साथ होते कुकृत्य..!
जैसे पानी का महत्व..!
जैसे गरीबी और भुखमरी किसी तेंदुए से कम नही जो निरीह लोगों को चीर फाड़कर अपना ग्रास बनाती हैं...!
जैसे एक इंसान की मूँछों की ऐंठ उसकी माली हालत से आँकी जाती है...! जिसकी ऐंठ, सिर्फ एक दिखावा है, आगंतुकों पर रौब झाड़ने के लिए...!
गरीब कंचन पर मेमसाहब की उमड़ती दया का भेद जानकर छिगन पर जो असर होता है वह उपन्यास को एक नया आयाम देता है।
बड़ी सहजता से मानवीय मूल्यों को उद्घाटित करता एक मार्मिक उपन्यास..!
बिंबों के प्रयोग पर तो लक्ष्मी जी को महारथ हासिल है।
"रात की बारिश और बर्फ रात को ही विदा ले गई है। जानकू चट्टी के पर्वतों पर बिछी बर्फ से गलबहियाँ किये उतरती धूप कुछ ज़्यादा ही साफ और उजली है। उसने ज़रा सा धूपिया पीला उबटन पास बहती जमना की श्यामल वर्णा देह पर भी मल दिया है, जिससे वह निखरी निखरी हो गई है।"
अंत तक बाँधे रखने वाला उपन्यास..!
बधाई लक्ष्मी शर्मा जी..!
सादर आभार मीना जी..😊
ReplyDeleteवाह बहुत ही गहन लेखन।
ReplyDeleteसादर आभार आपका संदीप जी..😊
Deleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद ज्योति जी..😊
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteसादर आभार आपका..😊
Deleteउपन्यास रोचक लग रहा है... पढ़ने की कोशिश रहेगी...
ReplyDeleteजी अवश्य पढियेगा..😊👍
Deleteइतने रोचक अंदाज़ में आपने लिखा है कि उपन्यास पढ़ने की इच्छा जागृत हो रही है.
ReplyDeleteशुक्रिया जेनी जी..😊
Deleteबहुत ही रोचक लगा पढ़कर।
ReplyDeleteबधाई एवं शुभकामनाएँ।
सादर
सादर आभार अनिता जी..😊
Deleteवाह! बहुत बेहतीरन। मैं अवश्य प्रयास करूंगा कि इसे पढूँ।
ReplyDeleteबेहतरीन समीक्षा
ReplyDeletebada hi achha likha hai aapne, thanks ji
ReplyDeleteZee Talwara
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