अभी कुछ ही दिन पहले अखबार पढ़ते हुए , एक अजीब सी खबर
पर नज़र पड़ी । एक पिता ने अपने बेटे के दसवीं फ़ेल होने पर दावत की । पढ़कर अटपटा लगा
, यह क्या बात हुई । फ़ेल होने पर दावत...!
उत्सुकता बढ़ गई। यह खबर तो पढ़नी चाहिए । 
आगे लिखा था , कि उस परीक्षा के परिणाम आने के आधे
घंटे के भीतर  6 बच्चों ने फ़ेल होने की वजह
से आत्महत्या कर ली थी। 
पूरी बात शीशे की तरह साफ थी । 
आजकल जाने अंजाने बच्चों पर 
पढ़ाई का इतना दबाव बढ़ गया है , परफॉर्मेंस की इतनी टेंशन तारी रहती है
, कि उनकी ज़िंदगी सिर्फ पढ़ाई , ग्रेड्स और अंकों में ही उलझ कर रह जाती है । जी तोड़ मेहनत कर, कोचिंग
में घंटों पढ़कर , वे दिन रात एक कर देते हैं। शिक्षा प्रणाली ऐसी है, कि
खुले हाथों से अंक बंटने लगे हैं। हमें
याद है , स्कूल के टोपेर्स को 74 या 
75, प्रतिशत से अधिक अंक नहीं मिला करते थे । डिस्टिंशन यानि 70 प्रतिशत
से ऊपर गिने चुने बच्चों को मिल पाता था । पर आजकल परिणाम देखकर तो लगता है ,
कि
इन लोगों ने खिलवाड़ मचा रखा है । 85, 87, प्रतिशत तो औसत
माने जाते हैं। टोपेर्स को 99.5 प्रतिशत अंक मिल रहे हैं...!
ऐसे में एक एक अंक के लिए बच्चे जीव दिये रहते हैं। और उसमें ज़रा सा
पिछड़ जाएँ, तो सबसे बड़ी समस्या , अच्छे कॉलेज में एड्मिशन की होती है ।
जब प्राप्त अंकों का प्रतिशत इतना ऊँचा होता है, तो ज़ाहिर है,
अच्छे
कोलेजेस  का कट-ऑफ भी बहुत ऊपर जाता है । 
इस पूरी प्रक्रिया में , अभिभावकों का भी बहुत बड़ा हाथ होता है
। इस अंधी दौड़ में , वे बच्चों पर अनुचित दवाब डालते हैं। वजह चाहे जो भी चाहे सामाजिक
प्रतित्ष्ठा हो, चाहे अपने ही सर्कल में होड हो,  दाँव पर तो बच्चा ही लगता है । 
ऐसे में क्या आपको नहीं लगता कि पहले से ही तनावग्रस्त बच्चे को हमें
एक स्वस्थ माहौल, एक स्वस्थ मन:स्तिथि देने की
ज़रूरत है ?
पर ऐसा होता नहीं है । बच्चों के साथ अभिभावक भी तनावग्रस्त रहते हैं,
और
वह बच्चे की मानसिकता पर गहरा प्रभाव डालता है । 
दूसरी पंक्ति पढ़ते ही, उस खबर का सच मुखर हो उठा था । बच्चे
हैं, तो जहान है। एक परीक्षा  में
असफल होना , किसी अंत का ध्योतक नहीं है। जीवन में और मौके आयेंगे । दोबारा कोशिश
की जाएगी , और अच्छे परिणाम मिलेंगे । इसमें हतोत्साहित होने की ज़रूरत नहीं । 
कोई भी कार्य करते वक़्त , उसके पीछे की  मंशा महत्वपूर्ण होती है । अगर मंशा अच्छी है,
तो
आपका कृत्य  न्यायोचित है , जस्टीफिएड
है । किन्तु हमारे पूर्वाग्रह हमें ऐसा करने से रोकते हैं।
इस संदर्भ में सम्यक दृष्टि से देखा जाए तो हमें उस पिता का ऐसी
परिस्थिति में दावत देना  पूर्णतया  न्याओयाचित लगा । 
सरस दरबारी
 
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